28.7.19

53. सत्‍य को सचमुच स्‍वीकार करना क्‍या है?

शियाओहे पुयांग शहर, हेनान प्रांत
अतीत में, हर समय जब मैं परमेश्‍वर द्वारा प्रकट उस वचन के बारे में पढ़ता था कि कैसे लोग सत्‍य को स्‍वीकार नहीं करते हैं, तो मैं यह विश्‍वास नहीं करता था कि वे वचन मुझ पर भी लागू होते हैं। मैं परमेश्वर के वचन को खाने और पीने तथा परमेश्वर के वचन का संवाद करने का आनन्द लेता था, मैं परमेश्‍वर के द्वारा कही गई हर बात को स्वीकार और अंगीकार करने में समर्थ था—इस बात की परवाह किए बिना कि यह मेरे हृदय को कितनी चुभती है या यह मेरी अवधारणओं के अनुरूप नहीं है। इसके अलावा, इस बात की परवाह किए बिना कि, मेरे भाई-बहन चाहे जितनी अपूर्णताओं पर ध्‍यान दिलाते, मैं इसे अंगीकार और स्वीकार कर सकता था। मैं खुद को न्‍यायसंगत ठहराने की कोशिश नहीं करता था, इसलिए मैं सोचता था कि मैं एक ऐसा मनुष्‍य हूँ जिसने निश्चित रूप से सत्य को स्वीकार कर लिया है। सिर्फ ऐसे लोग जो विशेष रूप से अहंकारी और दंभी थे और परमेश्वर के वचन के बारे में अवधारणाएँ रखते थे, जो यह अंगीकार नहीं करते हैं कि परमेश्‍वर का वचन सत्‍य हैं, वे ही सत्‍य को स्‍वीकार नहीं करेंगे। मैं हमेशा इसी तरह सोचता था जब तक कि एक दिन मैं "जीवन में प्रवेश पर उपदेश और वार्तालाप" को सुन कर, मैं वाकई समझ गया कि सत्‍य को स्‍वीकार करने का अर्थ क्‍या है।
यह कहता है: "मात्र यह स्वीकार करना पर्याप्त नहीं है कि परमेश्‍वर का वचन सत्य है, तुम्‍हें इसे दिल से स्‍वीकार करना चाहिए और सत्‍य को अपने दिल में स्‍थान लेने देना चाहिए और इसे अपनी शक्ति प्रदर्शित करने देनी चाहिए। इसे तुम्‍हारे हृदय में जड़ पकड़ कर तुम्‍हारी ज़िंदगी अवश्य बन जाना चाहिए। सत्य को स्वीकार करने की यही वास्तविक अभिव्यक्ति है। … इसे अपने दिल में स्वीकार करने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा हृदय यह अंगीकार करता है कि यह वाक्‍य सत्य है और इसमें सत्‍य के सार की सही पहचान है। तब तुम्‍हें अवश्य इस सत्‍य को पूरी तरह से स्‍वीकार कर लेना चाहिए और अपने हृदय में इसे स्‍थान लेने एवं जड़ पकड़ने देना चाहिए। इसके बाद, तुम्‍हें इस सत्‍य के अनुसार जीवन जीना चाहिए और इस सत्‍य के अनुसार चीज़ों को देखना चाहिए। यह सत्‍य को स्वीकार करना है। … परमेश्‍वर के वचन को खाना और पीना तथा यह मान लेना कि परमेश्‍वर का वचन सत्‍य है का अर्थ यह नहीं है कि किसी व्‍यक्ति ने सत्‍य को स्‍वीकार कर लिया है। बल्कि, यह परमेश्‍वर के वचन में सत्‍य के सार को पूर्णत: जानना और इसे अपने हृदय में स्‍वीकार करना है। यह परमेश्‍वर के प्रति तुम्‍हारी उन अवधारणाओं और पूर्व की मिथ्या-धारणाओं को पूर्ण रूप से इनकार करना है, जो परमेश्‍वर के वचन को सत्‍य के रूप में स्‍वीकार करने के लिए तुमने पकड़ रखी थी, और परमेश्‍वर के वचन के अनुसार जीवन जीना है। यही सही अर्थों में सत्‍य को स्‍वीकार करना है" (जीवन प्रवेश के बारे में वार्तालाप और उपदेश II में "कैसे जानें कि मसीह ही सत्‍य, मार्ग और जीवन है")। जब मैंने यह सुना, तो मेरे दिल को तुरंत धक्का लगा। तो, यह वैसा नहीं था जैसा सत्य को स्वीकार करने के बारे में मैं सोचता था। मैंने इसे एक बार और सावधानी से सुना और अंतत: मेरी समझ में आ गया कि सत्‍य को स्‍वीकार करने का अर्थ क्‍या था। मौखिक रूप से यह स्वीकार करना कि परमेश्‍वर का वचन सत्य है या अन्य लोगों द्वारा उल्लिखित अपूर्णता को स्वीकार करने में समर्थ होना वस्‍तुत: सत्य को स्वीकार करना नहीं है जैसा कि मैं सोचता था। वास्तव में सत्य को स्वीकार करने का अर्थ है न केवल यह मानना कि परमेश्‍वर का वचन सत्‍य है, बल्कि सत्‍य के सार को भी जानना और इसे पूर्णतः अपने हृदय में स्‍वीकार करना भी है। यह हमारे पहले की अवधारणाओं, दृष्टिकोणों और मिथ्या-धारणाओं को पूर्णतः इनकार करना है। यह सत्य को तुम्हारे हृदय में जड़ जमाने देना सत्य के अनुसार जीने में समर्थ होना है। यही वस्तुतः सत्‍य को स्‍वीकार करना है।
    यह सब समझने के बाद, मैंने स्वयं पर आत्‍म-चिंतन करना आरम्‍भ कर दिया: मेरा मानना है कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य को स्वीकार करता है, लेकिन क्या मैंने अपने दिल में परमेश्‍वर के वचन को स्वीकार किया है? क्या सत्य मेरे हृदय में अपनी शक्ति का प्रयोग करता है? क्या मैंने मेरे दिल में मौज़ूद पूर्व की अवधारणाओं और मिथ्या-धारणाओं को त्याग दिया है? सावधानी से खुद का परीक्षण करने के बाद, मैंने महसूस किया कि मैंने इनमें से कुछ भी नहीं किया था। उदाहरण के लिए: परमेश्‍वर यह प्रकट कर चुका है कि मानवजाति के बीच कोई सच्चा प्यार नहीं है, और वे सभी एक-दूसरे का लाभ उठाते हैं। यद्यपि मैं मौखिक रूप से उस सत्य को मानता था जो परमेश्‍वर कह चुके हैं, फिर भी मैं अपने हृदय में हमेशा महसूस करता था कि मेरी पत्नी, बच्चे, माता-पिता और मैं आपस में सच्‍चा प्‍यार करते हैं। मेरे ओंठ इस सत्‍य को स्‍वीकार करते थे कि परमेश्वर मानवजाति को उनकी हैसियत के आधार पर नहीं, बल्कि इसके बजाय इस आधार पर सिद्ध बनाता है कि उनमें सत्‍य है या नहीं, लेकिन मेरा हृदय अभी भी मेरे व्‍यक्तिगत दृष्टिकोणों को पकड़े हुए था कि मेरी हैसियत जितनी ऊँची होगी परमेश्‍वर मुझे उतना ही अधिक सिद्ध बनाएगा, जितनी अधिक मेरी हैसियत होगी, लोग मेरा उतना ही अधिक सम्‍मान करेंगे। मैं सोचता था कि परमेश्‍वर भी मुझसे प्रसन्‍न होगा। अतएव, मैं हमेशा हैसियत को पाने और गँवाने के बारे में चिंतित रहता था, और मुझे हमेशा इसके बारे में असहज महसूस होता था। मैं अपने मुँह से मानता था कि परमेश्वर की कही कठिनाइयाँ और शुद्धिकरण, और व्यवहार और काट-छाँट, परमेश्वर का प्रेम हैं, मनुष्य के जीवन के लिए सबसे अधिक फायदेमंद हैं। लेकिन मैं इन वचनों के सत्य के सार को समझने की कोशिश नहीं करता था और न ही यह जानने की कोशिश करता था कि परमेश्वर ने मानवजाति से कैसे प्रेम करता है और कैसे परमेश्वर का प्रेम अभिव्यक्त होता है, इस हद तक कि मैं यह स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं था मुझे शुद्ध करने और निपटाने के लिए परमेश्‍वर ऐसे लोगों, पदार्थों और चीज़ों का उपयोग करता है जो मेरी धारणाओं के अनुकूल नहीं हैं, इस हद तक कि मैं इसके बारे में शिकायत करता और बड़बड़ाता रहता था। मुझे पता था कि लोग ईमानदारी से रहें इस बारे में परमेश्वर का अनुरोध महत्वपूर्ण था, लेकिन मैं इसे व्‍यवहार में लाने या इसमें प्रवेश करने पर ज़ोर नहीं डालता था। मैं तब भी अपनी खुद की गरिमा के लिए झूठ बोला और धोखा दिया करता था। उसके बाद, मैं खुले तौर पर सत्य व्यक्त करने के लिए तैयार नहीं था। जब मुझे कर्तव्यों का पालन करते समय परेशानी का सामना करना पड़ता जिसमें शारीरिक कठिनाई की आवश्यकता होती थी, तो मैं लापरवाही से कार्य करना शुरू कर दिया करता था और अपने कर्तव्यों के प्रति खुद को समर्पित नहीं कर पाता था। मैं अपने मुँह से तो माना करता कि परमेश्वर ने सभी चीज़ों में उसकी इच्छा की खोज करने और परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार कार्य करने के लिए कहा है, लेकिन वास्तविक जीवन में मेरे सामने मामले आते, तो मैं वही करता जो मेरी पसंद और इच्छा के अनुसार होता था। मैंने परमेश्वर को पूरी तरह से अपने मन में पीछे डाल दिया। इसके अलावा, जब अन्य लोग मेरी खामियों को यह कहते हुए बताते थे कि मैं बहुत अहंकारी हूँ और कि मैं चीज़ों को अपने ही तरीके से करता हूँ, तो मेरा दिल उनकी आलोचनाओं को स्वीकार नहीं करता। लेकिन मैं डरता था कि दूसरे कहेंगे कि मैं सत्य स्वीकार नहीं करता हूँ, इसलिए मैं अपनी इच्छा के विरुद्ध उनसे सहमति प्रकट करके मान लेता था। लेकिन वास्तविकता में, मैं उनकी आलोचनाओं पर ध्यान नहीं देता था, और इसी वजह से मैं अभी भी आज के दिन तक नहीं बदला हूँ। मैं अभी भी शैतान की तरह घमंडी और अहंकारी हूँ। ... मेरे बारे में बहुत सी बातें थीं जो दिखाती थी कि मैंने सत्य को स्वीकार नहीं किया है। लेकिन जब मैंने देखा कि परमेश्वर का वचन प्रकट करता है कि सभी लोग सत्‍य को स्वीकार नहीं करते हैं, तो मैंने परमेश्वर के वचन को सत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया, और परमेश्वर के वचन के सार को समझने और अपने आप को जाँचने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय, मैंने कल्‍पना की कि मैं परमेश्वर के वचन के लिए एक अपवाद हूँ और अपने-आप को किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में माना जिसने सत्य को स्वीकार कर लिया हो। क्या यह सत्य को स्वीकार नहीं करने की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति नहीं थी? उस समय, मैंने देखा कि मैं कोई ऐसा व्यक्ति था जो किसी भी तरह से सत्य को स्वीकार नहीं करता है। सत्य को स्वीकार करने की मेरी तथाकथित अभिव्यक्तियाँ पूरी तरह से बाह्य क्रियाएँ थी; यह एक झूठा स्वांग था जो सत्य स्वीकार करने के करीब तक भी नहीं था। मैं खुद को नहीं जानता था, मैं सच में खुद को नहीं जानता था! इस बारे में जागरूक होने के बाद, मैं भयभीत होने के अलावा और कुछ न कर सकता था। मुझे पता था कि मैं इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास करता था फिर भी उसके वचनों से बाहर रहता था। मैंने वास्तव में परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त नहीं किए थे। मैं दिल में परमेश्वर से रहित और जीवन में सत्य से रहित, बस एक अविश्वासी था। अगर मैं इस तरह विश्वास करता रहता, तो परमेश्वर का वचन कभी भी मेरा जीवन नहीं बन पाता। मैं कभी भी शैतान के प्रभाव से अलग नहीं होता और बचाया और पूर्ण बनाया नहीं जाता। इसके विपरीत, परमेश्वर द्वारा मेरी निंदा की जाती, और मैं मुझ पर परमेश्वर का दंड पड़ता।
    मेरा मार्गदर्शन करने और मुझे यह समझने देने के लिए कि वस्तुतः सत्य को स्वीकार करने का क्या अर्थ है; मुझे यह देखने देने के लिए कि मेरा पिछला ज्ञान और अभ्यास बहुत बेतुके थे और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं थे, परमेश्‍वर की स्तुति। मैं नए सिरे से शुरू करना चाहता हूँ और अपने हृदय में उस सभी में सत्य के सार को स्वीकार करने पर अपने प्रयासों को एकाग्रित करना चाहता हूँ और जो परमेश्वर ने कहा है उसे अपने व्‍यवहार में कार्यान्वित करना चाहता हूँ। मैं सत्य के अनुसार जीने में समर्थ होना चाहता हूँ, ऐसा व्यक्ति बनना चाहता हूँ जो वास्तव में सत्य स्वीकार करता हो। 
   स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-मसीह के न्याय के अनुभव की गवाहियाँ

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