21.5.19

12. कलीसिया में कोई विशिष्ट व्यवहार नहीं है

लिऊ ज़िन लिआओचेंग सिटी, शैंडॉन्ग प्रांत
इतने सालों तक परमेश्वर का अनुसरण करने के बाद, मुझे लगता था कि मैंने कुछ कष्ट सह लिए हैं और एक निश्चित कीमत चुका दी है, इसलिए मैंने धीरे-धीरे अपने पिछले फायदों को जीना और अपनी वरिष्ठता पर इतराना शुरू कर दिया था। मैं सोचती थी कि: मुझे अपना घर छोड़े हुए इतने साल हो गए हैं और एक लंबे समय से मेरे परिवार ने मेरी ओर से कोई खोज-खबर नहीं सुनी है। इन परिस्थितियों में, कलीसिया निश्चित रूप से मेरा ध्यान रखेगा। भले ही मैं अपना कार्य अच्छी तरह से नहीं करूँ तब भी वे मुझे वापस घर नहीं भेजेंगे। ज्याद से ज्यादा वे मुझे पद से हटा देंगे और मुझे करने के लिए कोई और काम दे देंगे। ऐसी सोच के कारण, मुझे अपने काम में कोई भी भार नहीं लगता था। मैं हर चीज पर ध्यान नहीं देती थी, और यहाँ तक कि मैं सुसमाचार के कार्य को भी बोझ की तरह ही देखती थी, हमेशा कठिनाइयों और बहानों में जीती थी। भले ही मुझे अपने दिल में अपराध और अपनी अंतरात्मा में दोष महसूस होता था क्योंकि मैं अपने बेपरवाह व्यवहार के माध्यम से परमेश्वर की बहुत ज्यादा ऋणी थी, और यह कि मैं कभी न कभी हटा दी जाऊँगी, लेकिन मैं फिर भी भाग्य से जीतने की उम्मीद की मानसिकता के साथ बहते हुए, कलीसिया में अपने दिन गुजार रही थी।
परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है। अंत में, अपने दीर्घकालिक बेपरवाह बर्ताव के माध्यम से अपने कार्य को पूरी तरह से अस्त-व्यस्त करने के बाद, मुझे पदच्युत कर आत्म-चिंतन के लिए घर भेज दिया गया। उस समय, मैं हैरान हो गई थी: वे मेरे साथ थोड़ा और लिहाज कैसे नहीं दिखा सकते थे? इतने वर्षों तक काम करने के बाद, मुझे अब घर जाना है, ऐसे ही। लेकिन यदि अब मैं घर वापस जाती हूँ, तो मैं अपने परिवार का सामना कैसे कर सकती हूँ? भविष्य में मेरे लिए क्या संभावनाएँ होंगी? … मेरा दिल बेहद अराजक हो गया और मैं परमेश्वर के प्रति ग़लतफ़हमी और दोषारोपण से भर गई। मैं पीड़ा में संघर्ष करते हुए अंधकार में गिर गई।
बेहद कष्ट के बीच, मैं परमेश्वर के समक्ष आई और उसे पुकारा कि: हे परमेश्वर, मैं हमेशा सोचती थी कि इतने सालों तक घर से दूर काम करने और कुछ कष्ट सहने के बाद, कलीसिया मेरे साथ इस प्रकार का बर्ताव नहीं करेगा। अब मैं अंधकार में जीती हूँ, मेरा दिल तेरे प्रति ग़लतफ़हमी और दोष से भरा है। कृपा करके मुझ पर फिर से दया कर ताकि मैं अंधकार में तेरी प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकूँ। … लगातार कई बार इस तरह से प्रार्थना करने के बाद, परमेश्वर के वचन ने मुझे प्रबुद्ध किया। एक दिन, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को देखा: "मुझे तुम में से ऐसे लोगों से कोई सहानुभूति नहीं होगी जो बरसों कष्ट झेलते हैं और मेहनत करते हैं, लेकिन उनके पास दिखाने को कुछ नहीं होता। इसके विपरीत, जो लोग मेरी माँगें पूरी नहीं करते, मैं ऐसे लोगों पुरस्कृत नहीं, दंडित करता हूँ, सहानुभूति तो बिल्कुल नहीं रखता। शायद तुम्हारा ख़्याल है कि चूँकि बरसों अनुयायी बने रहकर तुम लोगों ने बहुत मेहनत कर ली है, भले ही वह कैसी भी रही हो, सेवक होने के नाते, परमेश्वर के दरबार में कम से कम तुम लोगों को एक कटोरी चावल तो मिल ही जाएंगे। मेरा तो मानना है कि तुम में से अधिकांश की सोच यही है क्योंकि अब तक तुम लोगों की सोच रही रही है कि किसी को अपना फायदा मत उठाने दो, लेकिन दूसरों से ज़रूर लाभ उठा लो। इसलिए मैं एक बात बहुत ही गंभीरता से कहता हूँ: मुझे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि तुम्हारी मेहनत कितनी सराहनीय है, तुम्हारी योग्यताएं कितनी प्रभावशाली हैं, तुम कितने बारीकी से मेरा अनुसरण कर रहे हो, तुम कितने प्रसिद्ध हो, या तुम कितने उन्नत प्रवृत्ति के हो; जब तक तुमने मेरी अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है, तब तक तुम मेरी प्रशंसा प्राप्त नहीं कर पाओगे। …क्योंकि मैं अगले युग में, अपने शत्रुओं और शैतान की तर्ज़ पर बुराई में लिप्त लोगों को अपने राज्य में नहीं ला सकता" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "उल्लंघन मनुष्य को नरक में ले जाएगा" से)। एक दोधारी तलवार की तरह सीधे मेरे मर्मस्थल में मुझे भोंकते हुए, परमेश्वर के प्रत्येक वचन ने उसके प्रताप और क्रोध को प्रकट किया, और "मेरे द्वारा किए गए कार्य, भले ही वह सराहनीय न हो, की वजह से चाहे कुछ भी हो जाए, कम से कम कलीसिया में जीवन बिताने में सक्षम होने" का मेरा सपना पूरी तरह से चूर-चूर हो गया। इस समय, मेरे पास आत्मचिंतन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था: भले ही मैंने घर छोड़ दिया था और इन पिछले कुछ वर्षों से बाहर अपने कर्तव्य को पूरा करती आ रही हूँ, थोड़ी सी कीमत अदा करती हुई और थोड़ा कष्ट सहती हुई सतही तौर पर दिखाई दे रही हूँ, लेकिन मैं परमेश्वर के दुःख को बिल्कुल भी महसूस नहीं करती थी, और मैं इस बारे में कभी नहीं सोचती थी कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कैसे उचित रूप से अपने कर्तव्य को पूरा किया जाए। इसके बजाय, मैं अपने कार्य का निपटारा करने में बेपरवाही से काम करती थी। खास तौर पर, इस अवधि के दौरान, अपने सुसमाचार के कार्य में मैंने कोई भी ज़िम्मेदारी नहीं ली और मैं यहाँ तक कि कलीसिया के सुसमाचार के अंश को भी मैं गंभीरता से नहीं लेती थी, इस बात की परवाह नहीं करती थी कि मैंने इसे पूरा किया या नहीं और ऐसा महसूस नहीं करती थी कि मैं किसी भी चीज के लिए परमेश्वर की ऋणी हूँ। मैं यहाँ तक कि यह सोचते हुए सुसमाचार के कार्य को एक बोझ की तरह ही देखती थी, कि यदि ज्यादा नए लोगों को आना है और उन्हें सींचने के लिए मैं किसी को नहीं खोज सकती हूँ, तो यह और भी ज्यादा कष्टकर हो जाएगा। परिणामस्वरूप, मैं सुसमाचार के कार्य में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती थी और मैंने इसे बहुत नुकसान पहुँचाया। चूँकि मैं नए लोगों को सींचने के कार्य पर ध्यान नहीं देती थी, इसके परिणामस्वरूप कुछ नए विश्वासी छोड़कर चले जाते थे क्योंकि उन्हें सींचने के लिए वहाँ कोई नहीं होता था। कलीसिया ने मेरे लिए मेजबान परिवारों को खोजने और कुछ अन्य सामान्य काम सँभालने की व्यवस्था की थी, लेकिन मैं अभी भी परमेश्वर के साथ सहयोग करने से मना करते हुए, कठिनाइयों और बहानों में जी रही थी। इसके अलावा, मैं अपनी वर्तमान स्थिति से तृप्त थी और प्रगति करने की कोशिश नहीं करती थी, मैं एक निश्चित स्तर तक पथभ्रष्ट हो रही थी और पवित्र आत्मा के कार्य को गंभीर रूप से खो रही थी, और कलीसिया के कार्य के कई पहलुओं के अस्तव्यस्त होने का कारण बन रही थी। … मैं अपने बर्ताव के बारे में सोचती थी: यह मेरे कर्तव्य को पूरा करना कैसे था? यह तो बस दुष्टता करना था! लेकिन असल में मैं सोचती थी कि, भले ही मेरा काम सराहनीय नहीं था, लेकिन मैं कम से कम कड़ी मेहनत तो करती थी, और चाहे कुछ भी हो, मुझे कम से कम कलीसिया में जीवन बिताने में सक्षम तो होना चाहिए। जब कलीसिया ने आत्मचिंतन के लिए मुझे घर वापस भेजने की व्यवस्था की थी, तो मुझे यहाँ तक भी लगा था कि मेरे साथ ग़लत किया गया है। मैं बेशर्मी के साथ परमेश्वर से माँग करते हुए और अपनी वरिष्ठता पर इतराते हुए, खुद को कलीसिया के सहयोगी के रूप में भी समझती थी। मैं वाकई बहुत अविवेकी, सामान्य समझ के अत्यंत अभाव वाली थी! मेरा यह स्वभाव परमेश्वर के अनुसार बहुत घृणित और विरोधी था! कलीसिया समाज और दुनिया के प्रति इस बात में अलग है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी के भी प्रति निष्ठुर है। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितने योग्य हो, तुमने कितनी अधिक यातनाएँ सही हैं, या कितने समय तक तुमने उसका अनुसरण किया है। अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, तो तुम पर बस परमेश्वर का कोप और प्रताप उतरेगा। मेरे जैसी कोई परजीवी, जो अपना वास्तविक कार्य नहीं करती थी और बस कलीसिया में रहती थी, कैसे धार्मिक परमेश्वर के समक्ष अपवाद हो सकती थी? केवल तभी मैंने यह समझा कि मेरा निष्कासन और मुझसे आत्मचिंतन करवाना निश्चित रूप से मेरे बारे में परमेश्वर का धार्मिक न्याय था। यह महानतम प्रेम और उद्धार भी था जो परमेश्वर अपने इस विद्रोही पुत्र को दे सकता था। अन्यथा, मैं अब भी "मेरे द्वारा किए गए कार्य, भले ही वह सराहनीय न हो, की वजह से चाहे कुछ भी हो जाए, कम से कम कलीसिया में जीवन बिताने में सक्षम होने" के गलत दृष्टिकोण को धारण कर रही होती, उसी सुंदर सपने में सो रही होती जो मैंने स्वयं के लिए बुना था, और अंतत: अपनी स्वयं की कल्पना में ही नष्ट हो जाती।
हे परमेश्वर! तेरा धन्यवाद! तेरी जय हो! भले ही बचाने का तेरा तरीका मेरी धारणाओं से मेल नहीं खाता है, लेकिन अब मैं तेरे इरादों को समझती हूँ और तेरी परवाह और विचार को देखती हूँ। मैं तेरी ताड़ना और न्याय को स्वीकार करने, और इसके माध्यम से उचित रूप से आत्मचिंतन करने और स्वयं को जानने, तेरे धार्मिक स्वभाव को जानने की इच्छुक हूँ, और इसके अलावा पछतावा करने और एक नया व्यक्ति बनने की नई शुरुआत करने की इच्छुक हूँ!
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-मसीह के न्याय के अनुभव की गवाहियाँ

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