4. अंतिम दिनों में अपने न्याय के कार्य को करने के लिए परमेश्वर मनुष्य का उपयोग क्यों नहीं करता, इसके बजाय उसे देह-धारण कर, स्वयं इसे क्यों करना पड़ता है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"जैसा पिता मरे हुओं को उठाता और जिलाता है, वैसा ही पुत्र भी जिन्हें चाहता है उन्हें जिलाता है" (युहन्ना 5:22)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर की सम्पूर्ण प्रबंधकीय योजना के कार्य को व्यक्तिगत तौर पर स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया गया है। प्रथम चरण-संसार की सृष्टि–को परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया था, और यदि इसे नहीं किया गया होता, तो कोई भी मानवजाति की सृष्टि करने में सक्षम नहीं होता; दूसरा चरण सम्पूर्ण मानवजाति का छुटकारा था, और इसे भी स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया था; तीसरा चरण स्पष्ट है: परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य के अन्त को स्वयं परमेश्वर के द्वारा किये जाने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। सम्पूर्ण मानवजाति के छुटकारे, उस पर विजय पाने, उसे हासिल करने, एवं सिद्ध बनाने के समस्त कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर सम्पन्न किया जाता है। वह यदि व्यक्तिगत तौर पर इस कार्य को नहीं करता, तो उसकी पहचान को मनुष्य के द्वारा दर्शाया नहीं जा सकता था, या उसके कार्य को मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता था। शैतान को हराने के लिए, मानवजाति को प्राप्त करने के लिए, और मानव को पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन प्रदान करने के लिए, वह व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य की अगुवाई करता है और मनुष्य के मध्य कार्य करता है; अपनी सम्पूर्ण प्रबधंकीय योजना की खातिर, और अपने सम्पूर्ण कार्य के लिए, उसे व्यक्तिगत तौर इस कार्य को करना ही होगा। यदि मनुष्य केवल यह विश्वास करता है कि परमेश्वर उसके द्वारा देखे जाने और उसे खुश करने के लिए आया था, तो ऐसे विश्वास का कोई मूल्य नहीं है, और उनका कोई महत्व नहीं है। मनुष्य का ज्ञान बहुत ही सतही है! केवल इसे स्वयं सम्पन्न करने के द्वारा ही परमेश्वर इस कार्य को अच्छी तरह से और पूरी तरह से कर सकता है। मनुष्य इसे परमेश्वर के स्थान पर करने में असमर्थ है। चूँकि उसके पास परमेश्वर की पहचान या उसका मूल-तत्व नहीं है, वह उसके कार्य को करने में असमर्थ है, और भले ही मनुष्य इसे करता, फिर भी इसका कोई प्रभाव नहीं होता। पहली बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया था तो वह छुटकारे की खातिर था, सारी मानवजाति को पाप से मुक्ति देने के लिए था, और मनुष्य को शुद्ध किये जाने एवं उसे उसके पापों से क्षमा किये जाने के योग्य बनाने के लिए था। विजय के कार्य को भी परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य के मध्य किया गया है। इस चरण के दौरान, यदि परमेश्वर को केवल भविष्यवाणी ही करना होता, तो किसी भविष्यवक्ता या किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति को उसका स्थान लेने के लिए ढूंढा जा सकता था; यदि केवल भविष्यवाणी को ही कहा जाता, तो मनुष्य परमेश्वर के एवज़ में खड़ा हो सकता था। फिर भी यदि मनुष्य को स्वयं परमेश्वर के कार्य को व्यक्तिगत तौर पर करना होता और मनुष्य के जीवन के लिए कार्य करना होता, तो उसके लिए इस कार्य को करना असंभव होता। इसे व्यक्तिगत तौर पर स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया जाना चाहिए: इस कार्य को करने के लिए परमेश्वर को व्यक्तिगत तौर पर देहधारण करना होगा। वचन के युग में, यदि केवल भविष्यवाणी को ही बोला जाता, तो इस कार्य को करने के लिए यशायाह या एलिय्याह भविष्यवक्ता को ढूंढा जा सकता था, और इसे व्यक्तिगत तौर पर करने के लिए स्वयं परमेश्वर की कोई आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि इस चरण में किया गया कार्य मात्र भविष्यवाणियों को कहना नहीं है, और क्योंकि इसका अत्यधिक महत्व है इसलिए मनुष्य पर विजय पाने और शैतान को पराजित करने के लिए वचन के कार्य का उपयोग किया गया है, इस कार्य को मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है, और इसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया जाना चाहिए। व्यवस्था के युग में यहोवा ने परमेश्वर के कार्य के एक भाग को किया था, जिसके पश्चात् उसने कुछ वचनों को कहा और भविष्यवक्ताओं के जरिए कुछ कार्य किया। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य यहोवा के कार्य के एवज़ में खड़ा हो सकता था, और दर्शी लोग उसके स्थान पर आने वाली बातों को बता सकते थे और कुछ स्वप्नों का अनुवाद कर सकते थे। आरम्भ में किया गया कार्य सीधे तौर पर मनुष्य के स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य नहीं था, और मनुष्य के पाप से सम्बन्धित नहीं था, और मनुष्य से सिर्फ व्यवस्था में बने रहने की अपेक्षा की गई थी। अतः यहोवा ने देहधारण नहीं किया और स्वयं को मनुष्य पर प्रगट नहीं किया; इसके बजाय उसने मूसा एवं अन्य लोगों से सीधे बातचीत की, तथा उनसे बुलवाया और अपने स्थान पर कार्य करवाया, और उनसे मानवजाति के मध्य सीधे तौर पर कार्य करवाया। परमेश्वर के कार्य का पहला चरण मनुष्य के नेतृत्व का था। यह शैतान के साथ युद्ध का आरम्भ था, परन्तु यह युद्ध अभी तक आधिकारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था। परमेश्वर के पहले देहधारण के साथ ही शैतान के साथ आधिकारिक युद्ध का आरम्भ हो गया था, और यह आज के दिन तक निरन्तर जारी है। इस युद्ध का पहला उदाहरण तब सामने आया जब देहधारी परमेश्वर को क्रूस पर कीलों से जड़ दिया गया था। देहधारी परमेश्वर के क्रूसारोहण ने शैतान को पराजित कर दिया था, और यह युद्ध में प्रथम सफल चरण था। जब देहधारी परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में सीधे तौर पर कार्य करना आरम्भ किया, तो यह मनुष्य को पुनः प्राप्त करने के कार्य की आधिकारिक शुरुआत थी, और क्योंकि यह मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य है, इसलिए यह शैतान के साथ युद्ध करने का कार्य है। कार्य का यह चरण जिसे आरम्भ में यहोवा के द्वारा किया गया था वह महज पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का नेतृत्व था। यह परमेश्वर के कार्य का आरम्भ था, और हालाँकि इसमें अब तक किसी युद्ध, या किसी मुख्य कार्य को शामिल नहीं गया था, फिर भी इसने उस आने वाले युद्ध के कार्य की नींव डाली थी। बाद में, अनुग्रह के युग के दौरान दूसरे चरण के कार्य में मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करना शामिल था। जिसका अर्थ है कि स्वयं परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में कार्य किया था। इसे परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया जाना था: यह अपेक्षा करता था कि परमेश्वर व्यक्तिगत तौर पर देहधारण करे, और यदि वह देहधारण नहीं करता, तो कार्य के इस चरण में कोई अन्य प्राणी उसका स्थान नहीं ले सकता था, क्योंकि यह शैतान के साथ सीधी लड़ाई के कार्य को दर्शाता था। यदि मनुष्य ने परमेश्वर के स्थान पर यह काम किया होता, तो जब मनुष्य शैतान के सामने खड़ा होता, शैतान ने समर्पण नहीं किया होता और उसे हराना असंभव हो गया होता। यह तो देहधारी परमेश्वर ही था जो उसे हराने के लिए आया था, क्योंकि देहधारी परमेश्वर का मूल-तत्व अब भी परमेश्वर है, वह अभी भी मनुष्य का जीवन है, और वह अभी भी सृष्टिकर्ता है; चाहे जो भी हो, उसकी पहचान एवं मूल-तत्व कभी नहीं बदलेगा। और इस प्रकार, उसने शैतान के सम्पूर्ण समर्पण को अंजाम देने के लिए देह को पहना लिया और कार्य किया। अंतिम दिनों के कार्य के चरण के दौरान, यदि मनुष्य को यह कार्य करना होता और सीधे तौर पर वचनों को बोलना होता, तो वह उन्हें बोलने में असमर्थ होता, और यदि भविष्यवाणी के वचन को कहा जाता, तो यह मनुष्य पर विजय पाने में असमर्थ होता। देह का रूप लेने के द्वारा, परमेश्वर शैतान को हराने और उसके सम्पूर्ण समर्पण को अंजाम देने के लिए आया है। वह पूरी तरह से शैतान को पराजित करता है, पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पाता है, और पूरी तरह से से मनुष्य को प्राप्त करता है, जिसके बाद कार्य का यह चरण पूरा हो जाता है, और सफलता को हासिल किया जाता है। परमेश्वर के प्रबधंन में, मनुष्य परमेश्वर के एवज़ में खड़ा नहीं हो सकता है। विशेष तौर पर, युग की अगुवाई करने और नए कार्य को प्रारम्भ करने के कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर किये जाने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। मनुष्य को प्रकाशन देने और उसे भविष्यवाणी प्रदान करने के कार्य को मनुष्य के द्वारा किया जा सकता है, परन्तु यदि यह ऐसा कार्य है जिसे व्यक्तिगत तौर पर परमेश्वर के द्वारा ही किया जाना चाहिए, अर्थात् स्वयं परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध का कार्य, तो मनुष्य के द्वारा इस कार्य को नहीं किया जा सकता है। कार्य के पहले चरण के दौरान, जब शैतान के साथ कोई युद्ध नहीं था, तब यहोवा ने भविष्यवक्ताओं के द्वारा बोली गई भविष्यवाणियों का उपयोग करते हुए व्यक्तिगत तौर पर इस्राएल के लोगों की अगुवाई की थी। इसके बाद, कार्य का दूसरे चरण शैतान के साथ युद्ध था, और स्वयं परमेश्वर ने व्यक्तिगत तौर पर देहधारण किया था, और इस कार्य को करने के लिए देह में आया था। कोई भी कार्य जो शैतान के साथ युद्ध को शामिल करता है वह परमेश्वर के देहधारण को भी शामिल करता है, जिसका अर्थ है कि इस युद्ध को मनुष्य के द्वारा नहीं लड़ा जा सकता है। यदि मनुष्य को युद्ध करना पड़ता, तो वह शैतान को पराजित करने में असमर्थ होता। उसके पास उसके विरुद्ध लड़ने की ताकत कैसे हो सकती है जबकि वह अभी भी उसके प्रभुत्व के अधीन है? मनुष्य बीच में है: यदि आप शैतान की ओर झुकते हैं तो आप शैतान के हैं, परन्तु यदि आप परमेश्वर को संतुष्ट करते हैं तो आप परमेश्वर के हैं। यदि इस युद्ध के कार्य में मनुष्य को परमेश्वर के एवज़ में खड़ा होना पड़ता, तो क्या वह युद्ध कर पाता? यदि वह युद्ध करता, तो क्या वह बहुत पहले ही नष्ट नहीं हो जाता? क्या वह बहुत पहले ही अधोलोक में नहीं समा गया होता? और इस प्रकार, परमेश्वर के कार्य में मनुष्य उसका स्थान लेने में असमर्थ है, कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य के पास परमेश्वर का मूल-तत्व नहीं है, और यदि आप शैतान के साथ युद्ध करते तो आप उसे पराजित करने में असमर्थ होते। मनुष्य केवल कुछ कार्य ही कर सकता है; वह कुछ लोगों को जीत सकता है, परन्तु वह स्वयं परमेश्वर के कार्य में परमेश्वर के एवज़ में खड़ा नहीं हो सकता है। मनुष्य शैतान के साथ युद्ध कैसे कर सकता है? इससे पहले कि आप शुरुआत करते शैतान आपको बन्दी बना लेता। केवल स्वयं परमेश्वर ही शैतान के साथ युद्ध कर सकता है, और इस आधार पर मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण एवं उसकी आज्ञाओं का पालन कर सकता है। केवल इसी रीति से मनुष्य को परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और वह शैतान के बन्धनों से बचकर निकल सकता है। जो कुछ मनुष्य अपनी स्वयं की बुद्धि, अधिकार एवं योग्यताओं से हासिल कर सकता है वह बहुत ही सीमित होता है; वह मनुष्य को पूर्ण बनाने, उसकी अगुवाई करने, और इसके अतिरिक्त, शैतान को हराने में असमर्थ है। मनुष्य की मानसिक क्षमता एवं बुद्धि शैतान की युक्तियों को बाधित करने में असमर्थ है, अतः मनुष्य किस प्रकार से उस के साथ युद्ध कर सकता है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनःस्थापित करना और उसे एक बेहतरीन मंज़िल पर ले चलना" से
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