9.7.19

34. परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर बेहतरी के लिए एक मोड़

झुआनबिआन शंघाई शहर
यद्यपि मैं कई वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करता आ रहा था, फिर भी मैंने अपने जीवन में प्रवेश के साथ लगभग कोई प्रगति नहीं की थी, और इसने मुझे बहुत चिंतित महसूस करवा दिया था। खासकर जब मैंने जीवन प्रवेश के बारे में किसी उपदेश की एक रिकॉर्डिंग को सुना, और पवित्र आत्मा द्वारा द्वारा उपयोग किए गए व्यक्ति को उन भाइयों और बहनों से वार्ता करते हुए सुना जो उपदेश में उपस्थित थे और उसे सुन रहे थे, तो उसे इस तरह की बातें कहते हुए सुनकर मैं चिंतित महसूस करने लगा, "अब तुम लोग परमेश्वर में विश्वास करते हो और तुम लोगों ने सत्य की खोज की मिठास को चख लिया है। तुम लोगों ने सही रास्ते पर प्रवेश करना शुरू कर दिया है और तुम लोग उद्धार की अपनी खोज में निष्ठा से भरे हो।" मैं सोचता था कि, "इन लोगों ने इतने कम समय तक परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन ये पहले से ही प्रवेश कर चुके हैं और बचाए जाने के बारे में बहुत विश्वास से भरे हैं। फिर भी यहाँ मैं हूँ जिसने अब तक परमेश्वर पर विश्वास किया है और मैंने अभी तक सत्य को प्राप्त नहीं किया है और मेरे जीवन में स्वभाव में किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, और मैंने सही मार्ग पर प्रवेश करने पर कभी भी ध्यान नहीं दिया है। उद्धार प्राप्त करना करने की तुलना में कहना ज्यादा आसान है!" मैं इस बारे में सोचता था कि कैसे उपर्युक्त ने संगति की कि सत्य मनुष्य की सभी भ्रष्टताओं को हल कर सकता है, लेकिन मैंने कभी भी इसका बिल्कुल भी अनुभव नहीं किया था। मैं यहाँ तक भी महसूस करता था कि सत्य अन्य लोगों की भ्रष्टता को हल कर सकता है लेकिन मेरी खुद की नहीं, इसलिए मैंने सत्य और उद्धार की अपनी खोज में निष्ठा को गँवा दिया। यद्यपि, मैं यह जानता था कि मेरी खुद की हालत सही नहीं है, लेकिन कोई रास्ता नहीं था कि मैं इससे बच कर भाग निकल सकता, इसलिए मैं मदद के लिए परमेश्वर के समक्ष केवल रो सकता था। इसके बाद, उसके वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया, जिस वजह से मैंने उन कारणों को देखा कि क्यों मैंने इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था फिर भी मैंने जीवन में प्रगति नहीं की थी, और क्यों मेरे स्वभाव में कोई भी बदलाव नहीं आया था। परमेश्वर ने मुझे सत्य का अभ्यास करने और उसमें प्रवेश करने के मार्ग में भी नियत किया था।
परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मनुष्य के जीवन में वृद्धि और उसके स्वभाव में परिवर्तन सभी वास्तविकता में प्रवेश करने के द्वारा और, इससे भी अधिक, विस्तृत अनुभवों में प्रवेश करने के द्वारा प्राप्त होते हैं" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर" से)। "कुछ लोग सच्चाई को जानते हैं लेकिन इसे अभ्यास में नहीं डालते, वे ऐसा मानते हैं कि सच्चाई सिर्फ यही है और कुछ और नहीं। उनका विश्वास है कि यह उनकी धारणाओं और उनकी भष्टता को हल नहीं कर सकता है। क्या इस तरह का व्यक्ति हास्यास्पद नहीं है? क्या वे बेतुके नहीं हैं? क्या वे खुद को चतुर नहीं समझते हैं? यदि लोग सच्चाई के अनुसार कार्य करते हैं, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव बदल जाएगा; यदि लोग अपने प्राकृतिक व्यक्तित्व के अनुसार ही परमेश्वर में विश्वास और उसकी सेवा करते हैं, तो उनमें से कोई भी अपना स्वभाव परिवर्तित नहीं कर सकता। कुछ लोग अपनी ही चिंताओं में दिन भर उलझे रहते हैं और उस सच्चाई की जांच या उसका अभ्यास नहीं कर पाते हैं जो आसानी से उपलब्ध होती है। यह व्यवहार बहुत बेतुका है; इस तरह के लोग अंतर्निहित रूप से पीड़ित होते हैं, उनके पास आशीषें तो होती हैं लेकिन वे उनका आनंद नहीं लेते!" ("मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "जो लोग सच्चाई से प्रेम करते हैं, उनके पास अनुसरण करने का एक मार्ग होता है" से)। केवल परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि कई वर्षों तक उस पर विश्वास करने के बावजूद मेरे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था, और ऐसा मुख्य रूप से इसलिए हुआ था क्योंकि जब मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़ता था, तो मैं केवल शाब्दिक, सैद्धांतिक अर्थ को समझने पर ही ध्यान केन्द्रित करता था, और मुझमें केवल एक वैचारिकता की समझ थी। मैं सत्य को अभ्यास में लाने या वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहा था, न ही मैं व्यावहारिक अनुभव के माध्यम से परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा था। परमेश्वर में मेरे विश्वास के इन वर्षों के बारे में वापस सोचते हुए, सत्य का कोई भी पहलू क्यों न रहा हो, मैंने कभी भी इसकी गहन समझ रखने या सत्य के सार को समझने की कोशिश नहीं की, विस्तृत अभ्यास में प्रवेश करने की योजना तो बिल्कुल भी नहीं बनाई, जिसके माध्यम से मैं सत्य के एक पहलू को हासिल कर सकता था। इसके बजाय, मैं सोचता था कि बस सैद्धांतिक ज्ञान और समझ पाना पर्याप्त है। उदाहरण के लिए, वास्तविक जीवन में मैं हमेशा ही प्रसिद्धि और फायदे के लिए संघर्ष क रता था, हमेशा चाहता थी कि दूसरे लोग मेरी सुनें, मेरा सम्मान करें और मेरा समर्थन करें। इन भ्रष्टताओं को प्रकट करने के बाद, मैं बस थोड़ी देर के लिए सोचता था, और परमेश्वर के सामने प्रार्थना करता था, अपने खुद के भ्रष्टाचार को स्वीकार करता और जानता कि यह अहंकार की अभिव्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है। इसका परिणाम यह हुआ कि, मैंने परमेश्वर के समक्ष चाहे कितनी ही बार पछतावा या अपने पापों को स्वीकार क्यों न किया, लेकिन मेरी पुरानी प्रकृति नहीं बदली थी और मैं उन्हीं पुरानी गलतियों को दोहराना के लिए अभिशप्त था। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित वातावरण के भीतर, प्रार्थना और खोज करने के माध्यम से, मुझे पता चला कि परमेश्वर मेरी भ्रष्टता से निपटने के लिए इस वातावरण का उपयोग कर रहा था। हालाँकि, इस बात को मेरे समझने के बाद, मैंने बस यह स्वीकार कर लिया था कि परमेश्वर के सभी परीक्षण और शुद्धिकरण, परमेश्वर का वह सब मुझसे निपटना और मेरी काट-छाँट करना, उसका उद्धार था, उसका प्रेम था, यह कि परमेश्वर का दिल हमेशा अच्छा, काल है। इसका परिणाम यह हुआ कि, भले ही मैं कुछ कठिनाइयों से गुज़रा, लेकिन उसके परिणामस्वरूप मुझमें कोई बदलाव नहीं आया था। उस मनुष्य के उपदेश को मेरे सुनने के बाद, मुझे महसूस हुआ था कि ये संगतियाँ वास्तव में वही थी जिनकी मुझे ज़रूरत थी, कि इन्होंने मुझे उस सत्य को समझने दिया जिसे मैंने पहले नहीं समझा था। लेकिन मैं बस इतना ही करता था कि इन संगतियों की विषय-वस्तु को अपने दिमाग में याद कर लेता था और उसके बाद उन पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता था, जिसका परिणाम यह होता था कि थोड़ी बहुत समझ भी कुछ देर के बाद गायब हो जाती थी, और मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता था।
तथ्यों का सामना करके, मैं देखता था कि मैं सत्य की खोज बिल्कुल भी नहीं कर रहा था। मैं कई सालों से परमेश्वर में विश्वास करता था, लेकिन मैंने कभी भी सत्य का अभ्यास करने या वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया था, इस हद तक कि मैंने अभी तक भी सत्य को प्राप्त नहीं किया था और न ही मेरा स्वभाव किसी परिवर्तन से गुजरा था। यह पूरी तरह से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकाशन था, जैसा कि परमेश्वर ने बहुत समय पहले कहा था: "तुम्हें परमेश्वर के वचनों को जीने के लिए प्रयास समर्पित अवश्य करने चाहिए ताकि वे तुम्हारे अभ्यास में महसूस किए जा सकें। यदि तुम्हारे पास सिर्फ़ सैद्धांतिक ज्ञान है, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास बेकार हो जाएगा। तब यदि तुम सिर्फ़ इसे अभ्यास में लाते हो और उसके वचन को जीते हो तभी तुम्हारा विश्वास पूर्ण और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप माना जाएगा" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है" से)। परमेश्वर धार्मिक है। परमेश्वर ने किसी के साथ कभी भी अन्यायपूर्ण तरीके से व्यवहार नहीं किया है, और कभी भी मनुष्य को अकारण नहीं दिया है, मनुष्य को बिना शर्त तो बिल्कुल भी नहीं दिया है। मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता हूँ, उसके वचनों को जीने का मैंने कोई प्रयास नहीं किया है, जिसके परिणामस्वरूप आज मुझे अवश्य वही काटना चाहिए जो मैंने बोया है। इस समय, मैं इस बात पर अत्यधिक पछतावा करते हुए, बेहद अफसोस महसूस करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता हूँ कि, भले ही मैंने परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया था, लेकिन मुझमें अपने खुद के प्रवेश का अभाव था, इसलिए आज अभी भी मेरे पास अपने विश्वास तो प्रदर्शित करने के लिए कुछ नहीं है, मैंने वाकई परमेश्वर के उद्धार के अनुरूप आचरण नहीं किया था। और फिर भी, मैं इस तरह से विकृत होते नहीं रहना चाहता था, बल्कि इसके बजाय मैं आरंभ से शुरुआत करना, फिर से शुरुआत करना, अपने अभ्यास में प्रयास करना और खुद पर परमेश्वर के वचनों को लागू करना चाहता था।
इसके बाद, मैंने सत्य का अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रशिक्षण लेने की शुरुआत की। मैं वैसा अब और नहीं रह गया था जैसा मैं तब हुआ करता था, जब मैं चाहता था कि दूसरे लोग मेरी बात सुने, मेरा सम्मान करे और मेरा समर्थन करे, मैं बस परमेश्वर की प्रार्थना करता और पाप स्वीकार करता रहता था। इसके बजाय, मैं खासतौर पर इस मामले से संबंधित परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के लिए वचनों की खोज करके और परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करके, इस प्रकार अपनी खुद की भ्रष्टता का समाधान करके, मैं सत्य की खोज करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आया था। जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया और प्रवेश किया, तो परमेश्वर ने मुझ पर विशेष अनुग्रह दर्शाया जिसने मुझे यह अहसास करने दिया कि मैं परमेश्वर से उसके पद के लिए स्पर्धा कर रहा था, लोगों से अपनी पूजा करवा रहा था मानो कि मैं उनका पूर्वज हूँ, या वे मेरी पूजा करें मानो कि मैं परमेश्वर हूँ। मैं देखता ता कि मैं वह दानव शैतान हूँ, जिसकी प्रकृति और सार पूरी तरह से बड़े लाल अजगर के सदृश हैं, और मुझने अपनी खुद की प्रकृति के लिए घृणा और नफरत अनजाने में उत्पन्न हो गई थी। इसके बाद, मैंने खुद को परमेश्वर को ऊँचा उठाने के बारे में, परमेश्वर की गवाही देने के बारे में सत्य से सज्जित किया, और मैंने वास्तविकता में प्रवेश के लिए प्रशिक्षण लिया। इस अभ्यास के माध्यम से, मैंने खुद की उस कुरूपता और जुगुप्सा को और अधिक स्पष्ट रूप से देखा जो ऊँचाई पर खड़ी हो कर लोगों को बता रही थी कि वह क्या है। मैं खुद से और भी अधिक नफ़रत करता था खुद को कोसता था, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए देह को त्यागने और सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो गया था। कुछ समय तक इस प्रकार से प्रशिक्षण लेने के बाद, मैंने पाया कि मेरी खुद के अहंकारी स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ बहुत हद तक कम हो गई थी।
अतीत में, सामान्य अंतरवैयक्तिक संबंधों में, मैं जानता था कि मुझे सहिष्णुता, धैर्य का अभ्यास करना है, बुद्धि का उपयोग करना है, सिद्धांत रखने हैं और ईमानदार व्यक्ति बनना है। लेकिन वास्तविकता में, मैंने इन पाँच पहलुओं में कभी भी प्रवेश नहीं किया था। इसलिए, भाइयों और बहनों के साथ मेलजोल होने पर, कुछ छोटे से मामले और उनके कुछ भ्रष्टता प्रकट करने के कारण अक्सर उनके प्रति मुझमें इस हद तक पक्षपात पैदा हो जाता था, कि उनके साथ अच्छा मेलजोल बनाने का मेरे पास कोई तरीका नहीं होता था। अब, मैं प्रशिक्षण और अभ्यास करने के लिए असली जीवन में अपने पिछली समझ को लाता हूँ। जब मैं दूसरों की भ्रष्टता की अभिव्यक्ति की वजह से उनके साथ कठोरता से बर्ताव करता हूँ, तो मैं परमेश्वर की प्रार्थना करता हूँ और सत्य की खोज करता हूँ, और पूछता हूँ कि मैंने जिस मामले का सामना किया है मुझे उसे कैसे समझना चाहिए, और कैसे मुझे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर उसमें प्रवेश करना चाहिए। परमेश्वर के मार्गदर्शन में, मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ कि हर कोई अब बदलाव की खोज करने की प्रक्रिया में है, इसलिए निश्चित रूप से भ्रष्टता की अभिव्यक्तियाँ होंगी, जो हो सकता है कि अमुक व्यक्ति जो भ्रष्टता प्रकट करता है वह उनसे अनभिज्ञ हो, या हो सकता है कि उसकी खुद की प्रकृति अनजाने में ही उस पर हावी हो और वह मेरी ओर इस तरह का बर्ताव जान-बूझकर न कर रहा हो। यह बिल्कुल वैसा ही था, जब मेरा अहंकारी स्वभाव आमतौर पर दूसरों के लिए घृणास्पद था, फिर भी मैं खुद इससे अनजान रहता था। यही वह सब नुकसान है जो मनुष्य को शैतान द्वारा पहुँचाया जाता है। यह शैतान ही है जिससे नफ़रत की जानी चाहिए, और व्यक्ति को अपने भाइयों और बहनों के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए। जब मैं इस तरह से सोचता था तो मेरे अंदर की नाराज़गी और क्रोध तुरंत गायब हो जाते थे, और इसकी जगह मुझमें शैतान के प्रति घृणा और मेरे भाइयों और बहनों के प्रति सहानुभूति और क्षमा पैदा हो जाती थी, यहाँ तक कि मैं दूसरों की मदद करने के लिए उपयुक्त अवसर तलाशने की इच्छा भी रखने लगा था। जब मैं स्वैच्छिक रूप से अन्य लोगों की सहायता करने की कोशिश करता, तो मुझे पता चलता था कि उनके साथ मेरा संबंध बहुत दोस्ताना बन जाता था और मुझे दूसरों की मदद करने से मिलने वाला खुशी का स्वाद मिलता था।
जब मैं परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने और सत्य का अभ्यास करने में प्रशिक्षित हुआ, तो मैंने न केवल कुछ व्यावहारिक अनुभव और सत्य के सभी पहलुओं में प्रवेश प्राप्त किया, बल्कि मैंने परमेश्वर के अद्भुत कार्यों को भी देखा। मैं परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन को महसूस करता था और उस स्थिरता, शांति और आनंद का स्वाद चखता था जो सत्य के अभ्यास ने मेरे दिल को दिया था। मुझे लगता था कि जीवन के बारे में कुछ भी खाली नहीं है, हर दिन सीखने के लिए कोई न कोई सबक है, कि हर दिन नए विचार और समझ हैं, कि मैं हर रोज परमेश्वर को मुझे बचाते हुए देख पाता था, महसूस करता था कि सत्य की खोज करना बहुत सार्थक है, कि सत्य वाकई में लोगों को बचा और बदल सकता है!
एक बार मुझे यह थोड़ा सा वैयक्तिक अनुभव और समझ हो जाने पर, मैं महसूस करता था कि परमेश्वर में विश्वास करने के मेरे खुद के मार्ग ने बेहतरी के लिए मोड़ ले लिया है, फिर मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि उद्धार मेरी समझ से बाहर है। मैं मानता हूँ कि, अगर मैं परमेश्वर के साथ कार्य करूँगा, लगातार खुद को सत्य से सज्जित करूँगा और सत्य का अभ्यास करके उसमें प्रवेश करूँगा, तो मैं निश्चित रूप से अपने भ्रष्ट स्वभाव में परिवर्तन ले आऊँगा। मेरा मानना है कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने में समर्थ है और परमेश्वर के वचन मनुष्य को बदलने में समर्थ हैं: मुझमें यह निष्ठा है क्योंकि मैंने पहले ही इसका अनुभव ले लिया है। आज से, मैं अपने पैरों को मज़बूती से जमीन गड़ा कर, सत्य की खोज करना चाहता हूँ और सत्य का अभ्यास करना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि जल्द ही मेरे स्वभाव में बदलाव लाने, परमेश्वर के लिए गवाही देने हेतु एक सच्चे व्यक्ति के तरीके का जीवन बिताने, मुझे बचाने हेतु परमेश्वर के कार्य की गवाही देने, मनुष्य को बचाने हेतु परमेश्वर के सामर्थ्य की गवाही देने, और परमेश्वर के अद्भुत कर्मों की गवाही देने के लिए, परमेश्वर लगातार मेरी अगुआई करता रहे।
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-मसीह के न्याय के अनुभव की गवाहियाँ

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