11.6.19

25. सेवा में समन्वय का महत्व

मेई जी जिनान शहर, शैंडॉन्ग प्रांत
कलीसिया के प्रशासन को उसके मूल रूप में बदलने के बाद, परमेश्वर के घर में अगुआ के हर स्तर के लिए साझेदारी स्थापित की गई थी। उस समय, मैं सोचती थी कि यह अच्छी व्यवस्था है। मेरी क्षमता कम थी और मेरे पास काफी काम था; मुझे वाकई एक साझेदार की ज]रूरत थी जो मेरे क्षेत्र में सभी तरह के कार्य पूरा करने में मेरी मदद करे।
इसलिए, मैंने और उस बहन ने जो मेरी साझेदार बन गई थी, मिलजुल कर कलीसिया में पादरी संबंधी कार्य करना शुरू कर दिया। लेकिन धीरे—धीरे, मैंने देखा कि वह सभी तरह के कार्य मेरी इच्छा के अनुसार नहीं कर रही थी, और मेरे दिल में प्रतिरोध शुरू हो गया: यद्यपि मैं अपना खुद का कार्य करते समय थोड़ी व्यस्त हो जाती हूँ, यह ठीक है, और एक साझेदार की व्यवस्था करना दिक्कत भरा हो जाया करता था। अगर मैं उसे कुछ कार्य करने देती हूँ और यह अनुकूल नहीं हुआ, तो बेहतर होगा कि मैं वह कार्य खुद कर लूँ। अगर मैं उसे काम नहीं करने देती हूँ, तो खैर, वह मेरी साझेदार है।… इसलिए, मेरे दिल में ज्यादा से ज्यादा प्रतिरोध आता गया, और एक बार, मैं और नहीं सह पाई और मैंने उस पर अपना गुस्सा उतार दिया: "तुम इतनी मूर्ख कैसे हो सकती हो? तुम कई सालों तक अगुआ रही हो, फिर भी तुम अच्छा कार्य कैसे नहीं कर सकती हो? क्यों तुम कभी भी नहीं समझ सकती हो या उत्तर नहीं दे सकती हो?…" मेरी बात पूरी होने के बाद, मुझे बहुत ख़राब, वाकई अपराध-बोध महसूस हुआ। मैंने खुद में सोचा: क्या मेरी स्थिति ग़लत है? इसलिए, मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आई, और मैंने परमेश्वर के वचनों को देखा, जिसमें कहा गया था: "आज तुम लोगों की एक साथ मिलकर काम करने की अपेक्षा वैसी ही है जैसी यहोवा की अपेक्षा थी कि इस्राएली उसकी सेवा करें। अन्यथा, बस अपनी सेवा समाप्त कर दो। क्योंकि तुम सब वे लोग हो जो सीधे परमेश्वर की सेवा करते हो, कम से कम तुम लोगों को अपनी सेवा में वफादार और आज्ञाकारी होने में सक्षम होना चाहिए, और व्यवाहारिक तरीके से सबक सीखने में सक्षम होना चाहिए। … तुम लोग इस तरह के व्यावहारिक सबक का अध्ययन या प्रवेश भी नहीं करते हो, और तुम फिर भी परमेश्वर की सेवा करने की बात करते हो! … यदि तुम लोग, जो कलीसिया में काम करने के लिए समन्वय करते हैं, एक-दूसरे से सीखते नहीं हो, और एक-दूसरे की कमियों कि पूर्ति करने के लिए संवाद नहीं करते हो, तो तुम सभी सबक कहाँ से सीख सकते हो? जब तुम लोगों का किसी से सामना होता है, तो तुम लोगों को एक दूसरे के साथ सहभागिता करनी चाहिए, ताकि तुम्हारा जीवन लाभ पा सके" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "वैसे सेवा करो जैसे कि इस्राएलियों ने की" से)। फिर मैंने मनुष्य की संगति में इसे देखा: "यहाँ कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ समन्वय नहीं कर पाते हैं। कोई भी उनके निकट नहीं आ सकता है; यह उनके अहंकार और दंभ को प्रकट करता है, कि उनमें कोई भी मानवीय समझ नहीं है, वे खुद को नहीं जानते हैं, और दूसरों को तुच्छ समझते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? इस तरह के मनुष्य का स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदलता है, और यह कहना आसान नहीं है कि क्या वे परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं। जो लोग सच में खुद को जानते हैं, वे बहुत आलोचनात्मक हुए बिना दूसरों के साथ सही ढंग से बर्ताव कर सकते हैं। वे धैर्य के साथ दूसरों की मदद और सहयोग भी कर सकते हैं, लोगों को महसूस करवा सकते हैं कि वे प्यारे और प्रिय हैं; वे दूसरों के साथ उचित संबंध रख सकते हैं। उन लोगों में मानवता होती है, और केवल मानवता रखने वाले लोग ही परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं, वे दूसरों के साथ सद्भाव पूर्ण ढंग से रह सकते हैं, और अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा कर सकते हैं (कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मसीह की बातचीतों के अभिलेखों में "अपने कर्तव्य को पूरा करते समय मनुष्य का निर्णायक परिणाम प्रकट होता है")। परमेश्वर के उन वचनों और मनुष्य की इस संगति को संयोजित करके, मैंने ध्यानपूर्वक खुद की जाँच की और देखा कि मैंने परमेश्वर के घऱ द्वारा अगुओं के सभी स्तरों के लिए साझेदारों की व्यवस्था करने में परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझा था। इससे भी अधिक, मैंने सद्भावपूर्ण समन्वय के सत्य का अभ्यास नहीं किया था या सत्य में प्रवेश नहीं किया था। परमेश्वर के घर के द्वारा हमारे लिए साझेदारों की व्यवस्था करने का एक कारण हमारी क्षमता का अत्यधिक कम होना था, और सत्य के सभी पहलुओं की हमारी समझ भी अत्यधिक सीमित थी। हम कलीसिया के सभी कार्यों को अपने दम पर नहीं सँभाल सकते थे। एक साझेदार की मदद से, हम कलीसिया के कार्य को बेहतर ढंग से पूरा कर सकते थे और साथ ही अकेले कार्य करने, अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने, और परमेश्वर के प्रति हमारी सेवा में अपनी खुद की इच्छा के भरोसे रहने के माध्यम से परमेश्वर का विरोध करने से बच सकते थे। एक अन्य कारण यह था कि ताकि हम सामान्य मानवता के सत्य में प्रवेश करने का बेहतर ढंग से अभ्यास कर सकते थे, ताकि हम साझेदारों के साथ पारस्परिक संगति कर सकते थे, और एक—दूसरे से सीख सकते थे। यह कलीसिया के कार्य और साथ ही हमारे व्यक्तिगत जीवन प्रवेश के लिए भी बहुत लाभदायक है। इससे मैंने समझा कि हमारी सेवा में सद्भावनापूर्ण समन्वय कलीसिया के कार्य और हमारे व्यक्तिगत जीवन प्रवेश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है! लेकिन मुझे इसमें परमेश्वर की इच्छा बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती थी। इस समन्वय के माध्यम से मैं कौन से व्यावहारिक सबक सीख सकती थी, उस पर मैंने ध्यान नहीं दिया था। मैं कलीसिया की व्यवस्था की वजह से उसके साथ अनिच्छापूर्वक कार्य करती थी, और जैसे ही यह बहन कुछ चीज़ों को अच्छी तरह से नहीं सँभालती, मैं उसे डाँट देती और अपना आपा खो देती थी। मैं हमेशा सोचती थी कि वह मेरी तरह सक्षम नहीं है, और मैं उसके गुणों और फ़ायदों को नहीं देखती थी। यहाँ तक कि मैंने कलीसिया की व्यवस्थाओं का भी विरोध किया था। मैं वाकई बहुत ज्यादा अहंकारी थी, खुद से बहुत अनजान थी, और मुझमें थोड़ी सी भी सामान्य मानवता या तर्क नहीं था, और इससे भी अधिक मेरे दिल में परमेश्वर के लिए बिल्कुल भी आदर नहीं था, और मैं परमेश्वर के समक्ष सेवा करने के योग्य नहीं थी।
हे परमेश्वर! तेरे प्रकटन ने सद्भावनापूर्ण ढंग से समन्वय करने की मेरी अयोग्यता, मेरे अहंकार और तेरी सेवा करने के मेरे दयनीय पक्ष से मेरी पहचान करवाई। आज के दिन से आगे, मैं तेरे लिए एक आदर वाला हृदय बनाए रखने, खुद का अब और समर्थन न करने, और सभी कार्यों में कलीसिया के हितों पर ध्यान केन्द्रित करने की इच्छुक हूँ। सेवा में समन्वय में, मैं दूसरों का सहयोग करूँगी और दूसरों से सीखूँगी। मैं सत्य में अपने खुद के प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करूँगी, और शीघ्र ही सत्य एवं मानवता वाली ऐसी व्यक्ति बनने की कोशिश करूँगी जो तेरे द्वारा उपयोग किए जाने के लिए उपयुक्त हो।
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-मसीह के न्याय के अनुभव की गवाहियाँ

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