बाईशे शेन्यांग सिटी
किसी कार्य की आवश्यकता की वजह से, मेरा स्थानांतरण एक अन्य कार्यक्षेत्र में कर दिया गया था। उस समय, मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। मुझे महसूस होता था कि मुझमें बहुत कमी है, फिर भी परमेश्वर के दिव्य प्रोत्साहन के माध्यम से, मुझे इस तरह के अद्भुत कार्य क्षेत्र में अपने कर्तव्यों को पूरा करने का मौका दिया गया था। मैंने अपने हृदय में परमेश्वर के प्रति एक प्रतिज्ञा की: मैं परमेश्वर को बदला चुकाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करूँगी।
हालाँकि, मेरे पहुँचने के बाद, किए जा रहे कार्य में मुझे बहुत सी कमियों का पता चला। परिणामस्वरूप, मैंने कार्य की प्रत्येक वस्तु का स्वयं निरीक्षण करना शुरू किया। जब मैं अपने निरीक्षण के कार्य कर रही थी, तो मैं स्वयं में सोच भी रही थी कि: "कोई भी कार्य इस तरह से कैसे किया जा सकता है? कोई भी कार्य ठीक तरह से नहीं सँभाला गया था! मैंने सोचा था कि यहाँ किया गया कार्य उत्कृष्ट होगा। लेकिन मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि यह मेरे पिछले कार्य से भी ख़राब होगा। अब जबकि मैं यहाँ हूँ, तो इसे कार्य की व्यवस्था के अनुसार, कदम दर कदम, उचित रूप से सँभालना जाना चाहिए। मैं जीवन में प्रवेश करने के लिए सभी भाईयों और बहनों की अगुआई करूँगी।" इस वजह से, मैं समन्वयकों से मिली, कार्य की प्रत्येक वस्तु को व्यवस्थित करना, संवाद करना, योजना बनाना, और व्यवस्थाएँ करना शुरू किया। अपने पूरे संवादों के दौरान, मैं अक्सर ही अपनी सच्ची भावना को उजागर करती थी, "यहाँ कार्य की गुणवत्ता बहुत निम्न है। मेरा पहले का कार्य आप लोगों के अभी के कार्य की तरह नहीं था। अपने पुराने कार्यस्थल पर, हम हमेशा ही कार्य को अमुक-अमुक तरीके से सँभालते थे, हम हमेशा अमुक-अमुक को हमेशा अच्छी तरह से करते थे। हम परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी थे...।" इन सभाओं के बाद, कुछ समन्वयक कहा करते थे: "बिल्कुल ठीक! हमने वास्तविक मूल्य का कोई कार्य नहीं किया है। इस बार, हमें परमेश्वर की आवश्यकताओं के अनुसार शुरुआत करने और अपना कार्य करने की आवश्यकता है।" अन्य लोग कहा करते थे: "तुम्हारे महान संवाद और तुमने आज जो व्यवस्थाएँ की हैं उनके लिए तुम्हारा धन्यवाद। अन्यथा, सुरक्षा उपायों के प्रति हमारी असावधानी बहुत ज्यादा ख़तरनाक साबित होगी।" इन वचनों को सुनकर, मैं बहुत खुश होती थी। मुझे लगता था कि मैं निश्चित रूप से अपने पूर्व अगुआओं से ज्यादा मज़बूत थी। यद्यपि मुझे स्वयं पर गर्व होता था, लेकिन मैं थोड़ा दोषी महसूस करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती थी: क्या इस तरह से बात करना मेरे लिए वाकई उपयुक्त था? मैं हमेशा ऐसा क्यों कहती थी कि मेरा पिछला कार्यस्थल बेहतर था? लेकिन दूसरी ओर, मैं सोचती थी: ऐसा कहने में क्या ग़लत है? मैं उन्हें बस यह सिखाने की कोशिश कर रही थी कि बेहतर कार्य कैसे किया जाए। इस तरह, मैं स्वयं का परीक्षण करने के पवित्र आत्मा के प्रोत्साहन का अनुसरण नहीं करती थी। बाइबल में, नीतिवचनों की पुस्तक कहती है, "विनाश से पहले गर्व, और ठोकर खाने से पहले घमण्ड आता है" (नीतिवचन 16:18)। जैसे—जैसे-जैसे मैं ढेर सारी उम्मीदों के साथ सर के बल अपने कार्य में डुबकी लगा रही थी, वैसे-वैसे अपने हृदय में, मुझे यह महसूस होता था, कि मैं परमेश्वर के साथ संपर्क खो रही हूँ। मेरा कार्य न केवल वांछित परिणाम देने में असफल था, बल्कि हमारे सुसमाचार के कार्य की प्रभावकारिता भी उड़ान भरने से गोते लगाने में आ गई थी। मैं बहुत ही दर्दनाक स्थिति में पड़ गई थी, लेकिन निश्चित नहीं थी कि मैंने क्या गलत किया है। इसलिए, मैं ईमानदारी से मार्गदर्शन हासिल करने हेतु प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के समक्ष गई। इस समय, मेरे कानों में एक भजन के वचन बजने लगे: "परमेश्वर की सेवा करने वाली एक अगुआ के रूप में, व्यक्ति को सिद्धांतों पर डटे रहने की आवश्यकता होती है। भले ही आप सत्य का स्पष्ट रूप से संवाद नहीं कर सकते हों, किन्तु आपका हृदय सही स्थान पर अवश्य होना चाहिए। चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन तुम्हें परमेश्वर का उत्कर्ष करना चाहिए और जितनी अच्छी तरह से तुम दे सकते हो उतनी अच्छी तरह से तुम्हें परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए। तुम जितना स्वयं समझते हो उतना ही कहो, केवल परमेश्वर का उत्कर्ष करो और उसकी गवाही दो। अपनी प्रशंसा मत करो और दूसरों को तुम्हारी पूजा मत करने दो। तुम जो भी करो, अपनी प्रशंसा मत करो और दूसरों को तुम्हारी पूजा मत करने दो। यह पहला सिद्धांत है जो तुम्हें अवश्य याद रखना चाहिए" (मेम्ने का अनुसरण करना और नए गीत गाना में "अगुआओं के याद रखने के लिए तीन सिद्धांत")। मेरे चेहरे पर आँसू बहने लगे। मेरा हृदय एक साथ अफसोस, शर्मिंदगी और आभार से भर गया था। मैं उन सभी बातों को याद करती थी जो मैंने समन्वयकों से कही थी और महसूस करती थी कि मैं वाकई परमेश्वर के दिव्य प्रोत्साहन के योग्य नहीं थी। मेरे कर्तव्यों को करने के लिए कलीसिया ने मेरे यहाँ आने की व्यवस्था की थी ताकि मैं परमेश्वर का उत्कर्ष कर सकूँ और परमेश्वर की गवाही दे सकूँ, भाइयों और बहनों की परमेश्वर के पास अगुआई कर सकूँ, और उसे जानने में उनकी सहायता कर सकूँ। फिर भी, मैं बेशर्मी से दिखावा करती थी, स्वयं का उत्कर्ष करती थी, स्वयं की गवाही देती थी, और स्वयं का निर्माण करती थी। मैं यह इसलिए करती थी ताकि लोग मेरी प्रशंसा करें और मेरी पूजा करें। मैं अहंकारी थी। मैं परमेश्वर को प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने के नाम पर स्वयं की गवाही देती थी और स्वयं का निर्माण करती थी। ऐसा कुत्सित व्यक्ति परमेश्वर की सेवा करने के योग्य कैसे हो सकता है? ऐसे किसी व्यक्ति के कार्य को परमेश्वर द्वारा आशीष दिया जा पा सकता है? मैं जो कुछ भी कर रही थी वह मनुष्यों के हृदयों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा कर रही थी। मैं एक मसीह विरोधी से कम नहीं थी। मैं परमेश्वर के कार्य में हस्तक्षेप कर रही थी और उसके प्रतिद्वंद्वी की तरह कार्य कर रही थी। मेरी सेवकाई शुद्ध रूप से परमेश्वर के विरुद्ध थी, और परमेश्वर को इससे नफरत थी। मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती थी, मुझे स्वयं से उतनी ही ज्यादा घृणा होती थी। मैं पश्चाताप के साथ परमेश्वर के समक्ष स्वयं को दंडवत करने, और उसके सामने चिल्लाने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी कि, "हे परमेश्वर! तेरी ताड़ना और न्याय के लिए तेरा धन्यवाद, जिसने मुझे जगा दिया, मेरे मसीह विरोधी सार और मेरी महादूत जैसी प्रकृति को पहचानने की मुझे अनुमति दी। तूने मेरी सेवकाई की दिशा को भी मेरे समक्ष उजागर किया, यह समझने में मेरी सहायता की कि यदि मैं केवल तेरा उत्कर्ष करती हूँ और केवल तेरी गवाही देती हूँ तभी मैं तुझे संतुष्ट कर सकती हूँ, तेरी इच्छा पूरी कर सकती हूँ, और तूने मुझे जो लक्ष्य दिया है उसे पूरा कर सकती हूँ। केवल तेरा उत्कर्ष करना और तेरी गवाही देना ही आनंददायक है। सृजित के रूप में सृष्टा के लिए यह मेरा कर्तव्य है। हे परमेश्वर! अब से, मैं बोलने या कार्य करने से पहले अपने हृदय और मंशा की जाँच करने, जागृत होकर तेरा उत्कर्ष करने और तेरी गवाही देने, तुझे जानने के लिए भाइयों और बहनों की अगुआई करने, और सत्य व मानववता धारण करने वाली व्यक्ति बनकर तेरे हृदय को सांत्वना देने का प्रण करती हूँ।"
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