2. परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में से प्रत्येक के उद्देश्य और महत्व को जानना।(11)
(2) अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य और महत्व
अनुग्रह के युग के कार्य में, यीशु परमेश्वर था जिसने मनुष्य को बचाया। उसका स्वरूप अनुग्रह, प्रेम, करुणा, सहनशीलता, धैर्य, विनम्रता, देखभाल और सहिष्णुता, और उसने जो इतना अधिक कार्य किया वह मनुष्य का छुटकारा था। और जहाँ तक उसका स्वभाव है, वह करुणा और प्रेम का था, और क्योंकि वह करुणामय और प्रेममय था, इसलिए उसे मनुष्य के लिए सलीब पर ठोंक दिया जाना था, ताकि यह दिखाया जाए कि परमेश्वर मनुष्य से उसी प्रकार प्रेम करता था जैसे वह स्वयं से करता था, इस हद तक कि उसने स्वयं को अपनी सम्पूर्णता में बलिदान कर दिया। शैतान ने कहा, "चूँकि तुम मनुष्य से प्यार करते हो, इसलिए तुम्हें उसे अत्यंत चरम तक प्यार अवश्य करना चाहिए: मनुष्य को सलीब से, पाप से मुक्त करने के लिए, तुम्हें अवश्य सलीब पर ठोंका जाना चाहिए, और तुम सभी मानव जाति के बदले में स्वयं को अर्पित करोगे।" शैतान ने निम्नलिखित शर्त बनायी: "चूँकि तुम एक प्रेममय और करुणामय परमेश्वर हो, इसलिए तुम्हें मनुष्य को अत्यंत चरम तक प्यार अवश्य करना चाहिए: तुम्हें अवश्य स्वयं को सलीब पर अर्पित करना चाहिए।" यीशु ने कहा, "अगर यह मानवजाति के लिए है, तो मैं अपना सब कुछ अर्पित करने को तैयार हूँ।" इसके बाद, वह बिना झिझक के सलीब पर चढ़ गया और समस्त मानव जाति को छुटकारा दिलाया। अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर का नाम यीशु था, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर था जिसने मनुष्य को बचाया, और यह कि वह एक करुणामय और प्रेममय परमेश्वर था। परमेश्वर मनुष्य के साथ था। उसका प्यार, उसकी करुणा, और उसका उद्धार हर एक व्यक्ति के साथ था। मनुष्य केवल तभी शांति और आनन्द प्राप्त कर सकता था , उसका आशीष प्राप्त कर सकता था, उसका विशाल और विपुल अनुग्रह प्राप्त कर सकता था, और उसके द्वारा उद्धार प्राप्त कर लेता, यदि मनुष्य यीशु के नाम को स्वीकार कर लेता और उसकी उपस्थिति को स्वीकार कर लेता। यीशु को सलीब पर चढ़ाने के माध्यम से, उसका अनुसरण करने वाले सभी लोगों को उद्धार प्राप्त हुआ और उनके पापों को क्षमा कर दिया गया। अनुग्रह के युग दौरान, परमेश्वर का नाम यीशु था। दूसरे शब्दों में, अनुग्रह के युग का कार्य मुख्यतः यीशु के नाम से किया गया था। अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर को यीशु कहा गया था। उसने पुराने विधान से परे नया कार्य किया, और उसका कार्य सलीब पर चढ़ाए जाने के साथ ही समाप्त हो गया, और यह उसके कार्य की संपूर्णता थी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
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