12.9.18

II. मानव जाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के बारे में सच्चाई के पहलू पर हर किसी को अवश्य गवाही देनी चाहिए

1. मानव जाति के प्रबंधन से सम्बंधित परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के उद्देश्य को जानो।(3)


परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

आज हम सब से पहले परमेश्वर के विचारों, युक्तियों, और मनुष्यों की सृष्टि के समय से लेकर अब तक के प्रत्येक कार्य को संक्षिप्त करने जा रहे हैं, और उसने संसार की रचना से लेकर अनुग्रह के युग के आधिकारिक प्रारम्भ तक क्या कार्य किया था उस पर एक नज़र डालने जा रहे हैं। तब हम परमेश्वर के उन विचारों और युक्तियों की खोज करेंगे जो मनुष्यों के लिए अन्जान हैं, और वहाँ से हम प्रबन्धन के लिए परमेश्वर की योजना के क्रम को स्पष्ट कर सकते हैं, और उस सन्दर्भ को विस्तारपूर्वक समझ सकते हैं जिसके तहत परमेश्वर ने अपने प्रबन्धन के कार्य, उसके स्रोत और विकास की प्रक्रिया को बनाया था, और विस्तारपूर्वक समझ सकते हैं कि वह अपने प्रबन्धन कार्य से किस प्रकार के परिणामों को चाहता है—अर्थात्, उसके प्रबन्धन के कार्य का केन्द्र एवं उद्देश्य। इन चीज़ों को समझने के लिए हमें सुदूर, खामोश और शांत समय में जाने की आवश्यकता है जब कोई मनुष्य नहीं था ...
जब परमेश्वर अपने सेज से उठा, पहला विचार जो उसके मन में आया वह यह थाः एक जीवित, वास्तविक और जीवित मनुष्य को बनाए—ऐसा कोई जिसके साथ वह रहे और उसका निरन्तर साथी बने। वह व्यक्ति उसे सुन सके, और परमेश्वर उस पर भरोसा कर सके और उसके साथ बात कर सके। तब, पहली बार, परमेश्वर ने एक मुट्ठी धूल लिया और सब से पहला जीवित व्यक्ति बनाने के लिए उस का प्रयोग किया जिस की उस ने कल्पना की थी, और तब उस जीवित प्राणी को एक नाम दिया—आदम। एक बार जब परमेश्वर ने इस जीवित और साँस लेते हुए प्राणी को प्राप्त कर लिया था, तो उसने कैसा महसूस किया था? पहली बार, उसे किसी प्रेम करनेवाले, एक साथी को पाने का आनन्द प्राप्त हुआ। उसने पहली बार एक पिता होने काउत्तरदायित्व का भी एहसास किया और उस चिन्ता का भी जो उसके साथ आया था। यह साँस लेता हुआ प्राणी परमेश्वर के लिए प्रसन्नता और आनन्द लेकर आया; उस ने पहली बार सन्तुष्टि का अनुभव किया। यह वह पहली चीज़ थी जिसे परमेश्वर ने बनाया था जिसे परमेश्वर ने अपने विचारों या वचनों से नहीं बनाया था, किन्तु स्वयं अपने दोनों हाथों से बनायाथा। जब इस प्रकार की हस्ती—एक जीवित और साँस लेता व्यक्ति—परमेश्वर के सामने खड़ा हो गया, लहू और माँस से बना हुआ, शरीर और आकार के साथ, और परमेश्वर से बातचीत करने में सक्षम था, उसने एक प्रकार का आनन्द महसूस किया जिसे उसने कभी भी महसूस नहीं किया था। उसने सचमुच में अपनाउत्तरदायित्व का एहसास किया और यह जीवित प्राणी ना केवल उसके हृदय से जुड़ गया था, बल्कि उसकी हर एक छोटी सी हलचल ने उसे छू भी लिया और उसके हृदय को गर्मजोशी से भर दिया था। इस प्रकार जब यह जीवित प्राणी परमेश्वर के सामने खड़ा हुआ तब पहली बार उसने यह विचार किया कि इस तरह के और लोगों को प्राप्त किया जाए। यह घटनाओं का सिलसिला था जो उस पहले विचार के साथ प्रारम्भ हुआ जो परमेश्वर के पास था। परमेश्वर के लिए, यह सभी घटनाएँ पहली बार घटित हो रही थीं, परन्तु इन पहली घटनाओं में, इस से फर्क नहीं पड़ता कि उसने उस समय कैसा महसूस किया था—आनन्द, उत्तरदायित्व, चिन्ता—वहाँ उसके पास कोई नहीं था जिससे वह उन्हें बाँट सके। उस पल के प्रारम्भ से ही, परमेश्वर ने सचमुच में अकेलेपन और उदासी का एहसास किया जिसे उसने पहले कभी भी महसूस नहीं किया था। उसे लगा कि मानव जाति उस के प्रेम और चिन्ता, और मानव जाति के लिए उसकी इच्छा को स्वीकार या समझ नहीं सकते हैं, इसलिए उसने अपने हृदय में दुःख और दर्द का अनुभव किया। यद्यपि उसने इन चीज़ों को मनुष्य के लिए बनाया था, फिर भी मनुष्य इस के प्रति जागरूक नहीं था और उसे नहीं समझा। प्रसन्नता के अलावा, वह आनन्द और संतुष्टि जिसे मनुष्य उस के लिए लेकर आया था वह शीघ्रता से उसके लिए उदासी और अकेलेपन के प्रथम एहसास को भी साथ लेकर आया। ये उस समय परमेश्वर के विचार और एहसास थे। जब परमेश्वर यह सब कुछ कर रहा था, वह अपने हृदय में आनन्द से दुःख की ओर और दुःख से दर्द की ओर चला गया, सब कुछ तनाव में घुल मिल गया। वो बस यही सब चाहता था कि जितना जल्दी हो सके यह व्यक्ति, यह मानव जाति जो कुछ उसके दिल में था उसे जान ले और उसकी इच्छाओं को शीघ्रता से समझ ले। तब, वे उसके अनुयायी बन सकते हैं और उसके साथ एक मेल में हो सकते हैं। वे आगे से परमेश्वर को बोलते हुए नहीं सुनेंगे लेकिन खामोश बने रहेंगे; वे आगे से अनजान नहींहोंगे कि कैसे परमेश्वर के साथ उसके कार्य में जुड़ें; सबसे बढ़कर, वे आगे से परमेश्वर की आवश्यकताओं को लेकर उदासीन लोग नहीं होंगे। ये पहली चीज़ें जिन्हें परमेश्वर ने पूर्ण किया बहुत ही अर्थपूर्ण हैं और उसकी प्रबन्धन की योजना के लिए और आज मनुष्यों के लिए बड़ा मूल्य रखती हैं।
सभी चीज़ों और मनुष्यों की सृष्टि करने के बाद, परमेश्वर ने आराम नहीं किया। अपने प्रबन्धन को पूरा करने के लिए वह इन्तज़ार ना कर सका, और ना ही वह ऐसे लोगों को हासिल करने का इन्तज़ार कर सका जिन्हें उस ने मनुष्यों में से सब से ज़्यादा प्यार किया था।
…………
… परमेश्वर मानव जाति के प्रबन्धन, और मनुष्यों के उद्धार की इस घटना को देखता है, जैसे कि यह किसी भी दूसरे चीज़ से कहीं ज़्यादा महत्पूर्ण है। वह इन चीज़ों को केवल अपने मस्तिष्क से नहीं करता है, और ना ही उसे अपने शब्दों से करता है, और विशेष रूप से इन चीज़ों को अकस्मात् ही नहीं करता है—वह यह सब कुछ एक योजना के साथ, एक उद्देश्य के साथ, एक ऊँचे स्तर के साथ, और अपनी इच्छा के साथ करता है। यह साफ है कि मानव जाति को बचाने का यह कार्य परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बड़ा महत्व रखता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कार्य कितना ही कठिन है, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाधाएँ कितनी ही बड़ी हैं, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मनुष्य कितने ही कमज़ोर हैं, या मानव जाति का विद्रोही स्वभाव कितना ही गहरा है, इसमें से कुछ भी परमेश्वर के लिए कठिन नहीं हैं। जिस कार्य को वह स्वयं करना चाहता है उसके लिए परीश्रमी प्रयास और प्रबन्ध करते हुए परमेश्वर अपने आप को व्यस्त रखता है। वह सभी चीज़ों को व्यवस्थित भी कर रहा है, और सभी लोगों और वह कार्य जिसे वह पूर्ण करना चाहता है उस पर अपना नियन्त्रण कर रहा है—इसमें से कुछ भी पहले नहीं किया गया था। यह पहली बार था जब परमेश्वर ने इन पद्धतियों को प्रयोग किया था और मानव जाति को बचाने और उस का प्रबन्ध करने की मुख्य परियोजना में एक बड़ी कीमत अदा की थी। जब परमेश्वर इन कार्यों को कर रहा है, वह थोड़ा थोड़ा करके बिना रूके मनुष्यों के सामने अपने कठिन कार्य, जो उसके पास है और जो वह है, उसकी बुद्धि और सर्वसामर्थता, और अपने स्वभाव के हर एक पहलू को प्रदर्शित कर रहा है।उसने अंश अंश करके इन सब को मानव जाति के सामने खुलकर प्रकाशित किया, और उसने इन चीज़ों को ऐसा प्रकाशित और प्रकट किया जैसा कि उसने पहले कभी भी नहीं किया था। अतः, पूरे विश्व में, लोगों के अलावा जिन्हें परमेश्वर बचाने और उन का प्रबन्ध करने का उद्देश्य रखता है,कोई भी ऐसा जीवधारी नहीं था जो परमेश्वर के इतने करीब था, जिस का उस के साथ इतना गहरा रिश्ता हो। अपने हृदय में, वह मानव जाति जिस का वह प्रबन्ध और उद्धार करना चाहता है, सब से महत्वपूर्ण है, और वह सब से बढ़कर इस मानव जाति को मूल्य देता है; और भले ही उसने उनके लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, और भले ही उनके द्वारा उसे लगातार चोट पहुँचाया जाता है और उस की अनाज्ञाकारिता की जाती है, फिर भी वह उन्हें कभी भी नहीं छोड़ता है और लगातार बिना थके बिना कोई शिकवा या शिकायत के अपने कार्य में लगा रहता है। यह इसलिए है क्योंकि वह जानता है कि बहुत जल्द या देर से ही मनुष्य एक ना एक दिन उस की बुलाहट के प्रति जागरूक हो जाएँगे और उस के वचनों से अभिभूत हो जाएँगे, और यह पहचानेंगे कि वह सृष्टि का प्रभु है, और उस की पक्षमें वापस आ जाएँग। …

"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III" से
Source From:सुसमाचार से सम्बन्धित सत्य,अंतिम दिनों के मसीह के लिए गवाहियाँ से

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