19.1.18

आपको जानना चाहिये कि समस्त मानवजाति आज के दिन तक कैसे विकसित हुई



6000 वर्षों में किया गया सम्पूर्ण कार्य समय के साथ-साथ धीरे-धीरे बदलता रहा है। इस कार्य में बदलाव समस्त संसार की परिस्थितियों के अनुसार आये हैं। परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य में समस्त मानवजाति के विकास के चलन के अनुसार धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन आये हैं, ये सृष्टि के आरंभ में पहले से सोचे या योजना के अनुसार नहीं किये गये हैं। इसके पहले कि संसार सृजा गया, या सृजन के ठीक बाद, यहोवा ने प्रथम चरण के कार्य की योजना नहीं बनाई थी - अर्थात् व्यवस्था का चरण या काल, कार्य का दूसरा चरण - अनुग्रह का काल, और कार्य का तीसरा चरण - अर्थात् जीतने का काल, जिसमें वह एक समूह के लोगों के बीच पहले कार्य करेगा - मोआब के कुछ वंशजों के बीच, और उसके बाद वह समस्त ब्रह्माण्ड को जीतेगा। उसने ये वचन संसार की सृष्टि करने के बाद नहीं कहे, उसने ये वचन मोआब के बाद नहीं कहे, लूत से पहले की बात छोड़ भी दें। उसके सभी कार्य अपने आप किये गये थे। ठीक इसी प्रकार उसके छह हजार वर्षों के प्रबंधन के कार्य विकसित हुये हैं उसने किसी भी साधन से या माध्यम से जिस तरह से मानवजाति से सम्बन्धित विकास की योजना को लिखा था उस प्रकार, संसार का सृजन करने से पहले किसी के बारे में नहीं लिखा। परमेश्वर के काम में वे सीधे-सीधे अभिव्यक्त करते हैं कि वे क्या है, वे एक योजना बनाने के लिये अपने मस्तिष्क पर जोर नहीं देते। निश्चय ही बहुत से भविष्यद्वक्ताओं ने बहुत सी भविष्यद्वाणियां की हैं, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर का कार्य सदैव ही एक निश्चित योजना बनाकर करने का था, भविष्यद्वाणियां परमेश्वर के वास्तविक कार्य के अनुसार की गई। उसका समस्त कार्य सर्वाधिक रूप में वास्तविक कार्य है। वह समयों या कालों के विकास अनुसार अपने कार्य को सम्पन्न करता है, और वे अपने सबसे अधिक वास्तविक कार्यों को वस्तुओं में परिवर्तन के आधार पर करते हैं। उसके लिये अपने कार्य को सम्पन्न करना ऐसा है जैसे बीमार व्यक्ति को दवा देना, वह अपने काम को सम्पन्न करते हुये अवलोकन करता है। और अपने अवलोकनों के अनुसार काम करता है। उसके कार्य के प्रत्येक चरण में, वह अपनी विशाल बुद्धि को अभिव्यक्त करने और अपनी बड़ी योग्यता को अभिव्यक्त करने में सक्षम है, वह अपनी विशाल बुद्धि और बहुत बड़ा अधिकार उस युग विशेष के काम के अनुसार प्रकट करते हैं, और जो उनके पास वापस लाये गये हैं, उन्हें वह उन युगों में अनुमति देते हैं कि वे उनके सम्पूर्ण स्वभाव को समझ सकें। वे लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति और उस काम को करते हैं जो प्रत्येक युग में उनके द्वारा किया जाना चाहिये। वे लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति उस सीमा तक करते हैं जिस सीमा तक शैतान ने उन्हें भ्रष्ट कर दिया है। यह इसी प्रकार से था, जब यहोवा ने आरंभ में आदम-हव्वा का सृजन किया ताकि वे पृथ्वी पर परमेश्वर को प्रकट करें और सृष्टि के बीच परमेश्वर की साक्षी दें। परंतु सर्प द्वारा परीक्षा में पड़ने के बाद हव्वा ने पाप किया। आदम ने भी वही किया, और अदन की वाटिका में भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल उन दोनों ने खाया। इस प्रकार यहोवा के पास उनके लिये कुछ करने का अतिरिक्त काम आ गया। उसने उनकी नग्नता देखी, और पशुओं की चमड़े के वस्त्र बनाकर उनके शरीर को ढांक दिया। इसके बाद उसने आदम से कहा- "तूने जो अपनी पत्नी की बात सुनी और जिस वृक्ष के फल के विषय में मैंने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तूने खाया है, इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है। तू उसकी उपज जीवनभर दुख के साथ खाया करेगा, और वह तेरे लिये काँट…अंत में मिट्टी में मिल जायेगा , क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है" स्त्री से उसने कहा, "मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुख को बहुत बढ़ाऊंगा, तू पीड़ित होकर सन्तान उत्पन्न करेगी, और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।" उसके बाद उसने अदन की वाटिका में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया, और उन्हें वाटिका से बाहर कर दिया, जैसा कि आधुनिक मानव अब पृथ्वी पर रहता है। जब परमेश्वर ने मनुष्य को आरंभ में सृजा था, तब उसने मनुष्य की सांप के द्वारा परीक्षा किये जाने और उसके बाद मनुष्य और सांप को शाप देने की योजना नहीं बनाई थी। उसकी वास्तव में ऐसी कोई योजना नहीं थी। यह केवल घटनाक्रम के विस्तार के कारण था, उसे अपनी सृष्टि में करने के लिये एक नया काम मिल गया। जब यहोवा ने पृथ्वी पर आदम और हव्वा के जीवन में इस काम को सम्पन्न किया, मानवजाति कई हजार वर्षों के लिये विस्तारित और विकसित होती गई और तब, "यहोवा ने देखा कि मनुष्यों की बुराई पृथ्वी पर बहुत बढ़ गई है,- और उनके मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है वह निरन्तर बुरा ही होता है। और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया और वह मन में अति खेदित हुआ...परंतु यहोवा के अनुग्रह की दृष्टि नूह पर बनी रही" इस समय तक यहोवा के पास और भी नये काम आ चुके थे, क्योंकि जिस मनुष्य जाति को उसने सृजा था वह सर्प के द्वारा परीक्षा में पड़ने के बाद बहुत अधिक पापमय हो चुकी थी। इन परिस्थितियों के चलते यहोवा ने मनुष्यों के बीच से नूह के परिवार का चयन किया और उन्हें बचाया, और संसार को जलप्रलय के द्वारा नाश करने का कार्य सम्पन्न किया। मानवजाति उसके बाद आज के दिन तक इसी प्रकार विकसित होती जा रही है, वह लगातार अधिक से अधिक भ्रष्ट हो रही है, और जब वह अपने विकास के शिखर पर आ जायेगी, तब मानवजाति का अंत आ जायेगा। संसार के आरंभ से लेकर अंत तक परमेश्वर के कार्य की भीतरी कहानी सदैव ऐसी ही रही है। यही बात तब भी होगी जब मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति इन श्रेणियों में पूर्व नियति के अनुसार नहीं हैं, ऐसा नहीं है कि वे आरंभ से ही इस प्रकार बाँटे गये हैं, लोगों को विकास की एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही धीरे-धीरे श्रेणियों में बाँटा जाता है। अंत में, कोई व्यक्ति जो पूरी तरह उद्धार नहीं पा सकता, वह अपने 'पुरखों' में लौट जाता है। मनुष्यों के लिये परमेश्वर का कोई भी कार्य सृष्टि के आरंभ से पहले से निश्चित नहीं था, परंतु यह घटनाक्रम के विस्तार के कारण था कि परमेश्वर को अधिक वास्तविक एवं व्यवहारिक रूप में, चरणबद्ध रूप में अपना कार्य करने का अवसर मिलता गया। यह बात ऐसी है कि यहोवा परमेश्वर ने स्त्री अर्थात् हव्वा की परीक्षा करने के लिये सांप की सृष्टि नहीं की थी। यह उसकी विशेष योजना नहीं थी। और न ही उसने पहले से जान बूझकर ऐसा कुछ निर्धारित करके रखा था। आप कह सकते हैं कि यह अनापेक्षित था। इस घटनाक्रम के चलते यहोवा ने आदम हव्वा को अदन की वाटिका से निष्कासित किया और शपथ ली कि फिर कभी मनुष्य का दोबारा सृजन नहीं करेंगे। परंतु इसी आधार पर परमेश्वर की बुद्धि के बारे में लोगों को पता चला, जैसा कि मैं कुछ पहले यह विचार आपके सामने लाया था- "मेरी बुद्धि का क्रियान्वयन शैतान के षडयंत्रों पर आधारित है, इससे फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति कितनी भी भ्रष्ट होती जाती या सांप कैसे उनकी परीक्षा करता, यहोवा के पास तब भी बुद्धि थी, इस कारण उसने संसार का जबसे सृजन किया है, वह नये-नये काम में लगा रहा और उसके कार्य के किसी भी चरण को दोहराया नहीं गया है, वह एक नये काम में संलग्न रहा है। शैतान ने लगातार षडयंत्र किये हैं, और मनुष्यजाति लगातार, बार-बार शैतान के द्वारा भ्रष्ट की गई है, यहोवा परमेश्वर ने भी अपने बुद्धियुक्त कार्यों को लगातार सम्पन्न किया है। वह कभी असफल नहीं हुआ, और सृष्टि के आरंभ से अब तक वह अपने काम को करने से कभी नहीं रुका। जब से मानवजाति शैतान के द्वारा भ्रष्ट की गयी, वह अपने लोगों के बीच अपने शत्रु को परास्त करने के लिये लगातार काम करता रहा है। आरंभ से ही चला यह युद्ध संसार के अंत तब चलता ही रहेगा। यह सब कार्य करते हुये, उसने शैतान के द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी मनुष्य जाति को उसके बड़े उद्धार को प्राप्त करने का अवसर दिया, परंतु साथ ही साथ उसने उन पर अपनी बुद्धि सर्वसामर्थीपन और अधिकार को भी प्रदर्शित किया, और अंत में वह मानवजाति पर अपना धार्मिकतायुक्त स्वभाव प्रकट करेगा, दुष्टों को दण्ड देगा, और भले लोगों को पुरस्कार देगा। वह आज के दिन तक शैतान के साथ युद्ध करता आया है और कभी भी पराजित नहीं हुआ। क्योंकि वह एक बुद्धिमान परमेश्वर है, और उसकी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर क्रियान्वित होती है। इस कारण न केवल वह स्वर्ग की सब बातों को अपने अधिकार की आधीनता में लाता है, वरन वह पृथ्वी की सभी बातों को अपने पांवों की चैकी बनाता है, और यही अंतिम बात नहीं है, वह सब बुरे काम करने वालों की, जो मानवजाति पर आक्रमण करते और सताव लाते हैं, उन्हें अपनी ताड़ना के आधीन लाता है। उसकी बुद्धि के कारण सभी कामों के परिणाम प्राप्त होते हैं। उसने मनुष्यों के अस्तित्व से पहले कभी अपनी बुद्धि को प्रकट नहीं किया था, क्योंकि स्वर्ग में, और पृथ्वी पर, और समस्त ब्रह्माण्ड में उसके कोई शत्रु नहीं थे, और प्रकृति में भी आक्रमण करने वाली अंधकार की शक्तियां नहीं थीं। प्रधान स्वर्गदूत द्वारा उसका विश्वासघात करने के बाद, उसने पृथ्वी पर मानवजाति को सृजा, और यह मानवजाति ही है जिसके कारण उसने औपचारिक रूप से प्रधान स्वर्गदूत अर्थात् शैतान के साथ सहस्राब्दि का युद्ध आरंभ किया, और यह युद्ध प्रत्येक चरण के बाद और भी अधिक घमासान होता गया। उसके सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान होने का प्रमाण प्रत्येक चरण में मिलता है। केवल इस दौरान ही स्वर्ग और पृथ्वी में सब परमेश्वर की बुद्धि, उसके सर्वशक्तिमान होने और विशेष करके परमेश्वर की वास्तविकता को देख सकते हैं। वह अब भी अपने कार्य को उसी वास्तविकता के तरीके से सम्पन्न करता है, साथ ही, जब वह अपने कार्य को करता है, वह अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमान के गुण को भी प्रकट करता है। वह आपको प्रत्येक चरण के भीतरी सत्य को देख पाने की अनुमति देता है, ताकि आप समझ सकें कि परमेश्वर के सर्वशक्तिमान होने को कैसे परिभाषित करें, विशेषकर परमेश्वर की वास्तविकता की व्याख्या कैसे करें।

क्या लोग यह विश्वास नहीं करते कि सृष्टि के पहले ही यहूदा का भाग्य तय हो चुका था कि वह यीशु को बेच देगा? वास्तव में, पवित्रात्मा ने उस समय की वास्तविकता के आधार पर यह योजना बनाई थी। यह सब कुछ इस प्रकार से घटित हुआ कि कोई जिसका नाम यहूदा था, जो दान में मिले धन में सदा हेराफेरी करता था, वह चुना गया कि इस भूमिका को निभाये और इस प्रकार यीशु के पकड़वाये जाने में अपनी सेवाएं दें। यह स्थानीय संसाधनों को उपयोग में लाने का एक अच्छा उदाहरण है। यीशु आरंभ में यह बात नहीं जानते थे, उन्हें तब पता चला जब यहूदा के बारे में उन पर सच प्रकट किया गया। यदि और कोई व्यक्ति उस समय इस भूमिका को कर सकता, तो यहूदा के स्थान पर उसे ही यह भूमिका दी जाती। यह जो पूर्व निर्धारित था, वास्तव में पवित्रात्मा में तात्कालिक घटनाक्रम के आधार पर किया गया। पवित्रात्मा का कार्य सदैव स्वत काम करता है; अर्थात जब वह अपने काम की योजना बनाते हैं, पवित्रात्मा उसे सम्पन्न करते हैं। मैं क्यों सदैव कहता हूं कि पवित्रात्मा का कार्य वास्तविकता के आधार पर होता है? अर्थात् वह सदैव नया होता है, कभी पुराना नहीं होता, और सदैव सबसे अधिक नवीनतम होता है? परमेश्वर का काम पहले से योजनाबद्ध नहीं था, जब संसार सृजा गया था, तब ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ था! कार्य का प्रत्येक चरण अपने सही समय पर समुचित प्रभाव प्राप्त करता है, और वे एक दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करते। ऐसे बहुत से अवसर आते हैं, जब आपके मन की योजनाएं पवित्रात्मा के नवीनतम कार्य से लेशमात्र भी मेल नहीं खातीं, उसका कार्य वैसा आसान नहीं है, जैसा लोग सोचते हैं। और न ही वह लोगों की कल्पनाओं जैसा जटिल है। उसमें लोगों को समय विशेष आने पर, किसी भी स्थान में उनकी तात्कालिक आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती है। लोगों के तत्व को लेकर जैसा अति स्पष्ट ज्ञान उसे है, किसी को नहीं है, और ठीक इसी कारणवश लोगों की वास्तविक आधार पर आवश्यकताओं के लिये उसके कार्य से अधिक अनुकूल और कुछ भी नहीं है। इस कारण सहस्राब्दि पूर्व मनुष्यों के दृष्टिकोण से, उसका कार्य योजना बद्ध कर दिया गया था। जब वह आपके बीच, आपकी परिस्थितियों के अनुसार काम करता है, वह काम भी करता है और किसी भी समय और किसी भी स्थान में बोलता भी है। जब लोगों की एक स्थिति होती है, वह उन शब्दों को कहता है जो उनकी उस स्थिति में उनकी आवश्यकता के अनुसार ठीक है। वह कार्य ताड़ना के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले काम के प्रथम चरण के समान है। ताड़ना किये जाने के बाद लोग एक विशेष व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, अर्थात एक प्रकार से विद्रोह प्रदर्शित करते हैं, कभी सकारात्मक स्थितियां उभरती हैं, कभी-कभी नकारात्मक स्थितियां भी उभरती हैं, और इस नकारात्मकता का ऊपरी स्तर एक विशेष ऊंचाई तक पहुंच जाता है। परमेश्वर इन सब बातों के आधार पर अपने काम को करते हैं, और वे इन बातों का उनके काम पर अधिक बेहतर कुप्रभाव पड़ने पर रोक लगा देते हैं। वे केवल लोगों में आपूर्ति करने का कार्य करते हैं जो उनकी तात्कालिक स्थितियों के अनुसार होता है। वे अपने कार्य का प्रत्येक चरण लोगों की वास्तविक स्थितियों के अनुसार सम्पन्न करते हैं। समस्त सृष्टि उसके नियंत्रण में है, क्या वह उन्हें नहीं जान सकता? लोगों की परिस्थितियों के प्रकाश में, परमेश्वर काम के अगले चरण में जाते हैं और वह करते हैं, जिसे करने की आवश्यकता है, किसी भी समय और किसी भी स्थान में। किसी भी दृष्टिकोण से यह काम हजारों वर्ष पहले से योजनाबद्ध नहीं किया गया था। यह तो मानवीय आवधारणा है! वह अपने कार्य के प्रभावों को देखकर कार्य करता है, और उसका कार्य लगातार अधिक गहरा और विकसित होता जाता है, जब वह अपने कार्य के परिणामों का अवलोकन करता है, वह अपने कार्य के अगले चरण के कार्य को सम्पन्न करता है। वह बहुत सी बातों को मध्य मार्ग में रखता है, और धीरे-धीरे अपने नये कार्य को समय आने पर लोगों के सामने प्रदर्शित करता है। इस प्रकार का कार्य लोगों की आवश्यकतायें पूरी करने के योग्य होता है, क्योंकि परमेश्वर लोगों को बहुत अच्छी रीति से जानते हैं। वह अपने कार्य को स्वर्ग से सम्पन्न करते हैं। इसी प्रकार, देहधारी परमेश्वर भी अपने कार्य को इसी प्रकार सम्पन्न करता है, वास्तविकता के आधार पर योजना बनाकर वह मनुष्यों के बीच में कार्य करता है। उसका कोई भी कार्य संसार की सृष्टि से पहले तय नहीं किया गया था, और न ही पहले से सोचा विचारा गया था। संसार की सृष्टि के 2000 वर्षों बाद यहोवा ने देखा कि मानवजाति बहुत अधिक भ्रष्ट हो चुकी है, और तब उसने भविष्यद्वक्ता यशायाह के मुख से भविष्यद्वाणी कराई कि व्यवस्था के युग का अंत होने के बाद, वह मानवजाति के उद्धार के कार्य को करेगा। और वह यह कार्य अनुग्रह के युग में करेगा। यह योजना निश्चय ही यहोवा थी, परंतु यह योजना भी परिस्थितियों के अनुसार थी, उसने उस समय अवलोकन किया, निश्चय यह योजना आदम-हव्वा की सृष्टि के तुरंत बाद नहीं बनाई गई थी। यशायाह ने केवल भविष्यद्वाणी की थी, परंतु यहोवा ने तुरंत, व्यवस्था के युग के दिनों में ही उसके लिये प्रबंध नहीं किये। इसके बदले उसने अपना काम अनुग्रह के युग के आरंभ में किया, जब संदेशवाहक स्वर्गदूत यूसुफ के स्वप्न में आया और उसे प्रकाशन दिया, और उसे बताया कि परमेश्वर देहधारण करेगा, और इस प्रकार अवतार लेने का उसका काम आरंभ हुआ। जैसा लोग सोचते हैं, परमेश्वर ने वैसा नहीं किया कि संसार के सृजन के बाद से अवतार लेने की अपनी योजना की तैयारी आरंभ की। यह तब निर्णीत हुआ, जब मनुष्यजाति के विकास के एक विशेष स्तर और शैतान के साथ उसके युद्ध की एक विशेष स्थिति आई।

जब परमेश्वर देहधारण करते हैं तो उसका आत्मा एक मनुष्य पर उतरता है, दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का आत्मा शरीर को पहन लेता है। वह अपना काम पृथ्वी पर करता है, यह नहीं कि अपने साथ कुछ प्रतिबंधित कदम या चरण ले, उसका यह कार्य अत्याधिक असीमित है। पवित्रात्मा शरीर में होकर जो काम करता है वह अब भी उसके कार्यों के प्रभावों के अनुसार तय किया जाता है वह अब भी उसके कार्यों के प्रभावों के अनुसार तय किया जाता है। और वह इन बातों के द्वारा उस समयसीमा का निर्धारण करता है कि शरीर में रहते हुये वह कितने लंबे समय तक उस काम को करेगा। पवित्रात्मा सीधे-सीधे परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण को प्रकट करता है। वह उसके काम का परीक्षण करता है जब वह काम में आगे बढ़ता है, इसमें ऐसा कुछ अलौकिक नहीं है जो मानवीय कल्पना की सीमाओं को विस्तार दे। यह यहोवा के द्वारा आकाश और पृथ्वी और अन्य सब वस्तुओं से सृजन के कार्य के समान है। उसने साथ-साथ योजना बनाई और काम किया। उसने ज्योति को अंधकार से अलग किया, और सुबह और शाम अस्तित्व में आये- इसमें एक दिन लगा। दूसरे दिन उसने आकाश को सृजा - उसमें भी उसे एक दिन लगा, और तब उसे पृथ्वी, समुद्र और उन सबको बनाया जिनसे उसने उन्हें भर दिया, इसमें भी एक दिन और लिया। और यह सब छंटवे दिन तक चलता रहा, सातवें दिन उसने मनुष्यों को सृजा ताकि वह पृथ्वी की सभी वस्तुओं का प्रबंधन करे, जब उसने सब बातों, वस्तुओं का सृजन करना समाप्त किया, उसने विश्राम किया। परमेश्वर ने सातवे दिन को आशीष दी और उसे पवित्र दिन ठहराया। उसने सातवें दिन को पवित्र ठहराया जब उसने सारी बातों की सृष्टि कर ली, उसके पहले नहीं, उसका यह कार्य भी स्वतः स्फूर्त था। सारी वस्तुओं के सृजन सेपहले उसने यह तय नहीं किया था कि वह संसार को छह दिनों में बनायेगा और सातवें दिन विश्राम करेगा। तथ्य बिलकुल भी इस प्रकार नहीं है - उसने यह सब नहीं कहा, और न इन सबकी योजना बनाई। उसने किसी भी प्रकार से, या किसी भी माध्यम से यह नहीं कहा कि वह सभी वस्तुओं के सृजन का कार्य छह दिनों में पूरा करेगा और न यह कहा कि वह सातवें दिन विश्राम करेगा। इसके बदले उसने सृजन का कार्य किया और जो उसे अच्छा लगा, करता गया। जब वह सब सृजन कर चुका, छह दिन हो चुके थे। यदि सृष्टि करने का उसका कार्य 5 दिनों में पूरा हो जाता, तो वह छंटवे दिन को पवित्र ठहराता, किंतु उसने समस्त सृजन कार्य छह दिनों में समाप्त किया, और इसलिये सातवां दिन पवित्र दिन बन गया। और यह बात आज के दिन तक प्रचलन में है। इसी कारण उसके वर्तमान या तात्कालिक कार्य भी इसी प्रकार से सम्पन्न किये जाते हैं। वह बोलता है और आपकी परिस्थिति के अनुसार आपकी आवश्यकता की पूर्ति करता है। अर्थात् लोगों की परिस्थितियों के अनुसार आत्मा बोलता और कार्य करता है। पवित्रात्मा सब पर निगरानी रखता है और किसी भी समय, किसी भी स्थान में काम करता है। और मैं यही करता हूं, कहता हूं, और आपको यह देता हूं और यह बिना अपवाद है और आपको इसकी आवश्यकता है। यही कारण है कि मैं यह कहता हूं कि मेरा कोई भी कार्य वास्तविकता से अलग नहीं है। वह सब वास्तविक हैं,- क्योंकि आप सबको यह पता है कि "परमेश्वर का आत्मा सब पर निगरानी रखता है" यदि यह सब समय के पहले तय किया गया होता, तो क्या यह बहुत अधिक निरस काम नहीं होता? क्या आप सोचते हैं कि परमेश्वर ने पूरे 6000 वर्षों तक कार्य किया और तब मनुष्य को विद्रोही, प्रतिरोधी, धूर्त और चालाक, शारीरिकता से भरपूर और शैतानिक स्वभाव, आंखों की अभिलाषा और स्वार्थमय ठहराकर पूर्व नियति निर्धारित की। नहीं, यह पूर्व नियति नहीं थी, परंतु शैतान के भ्रष्टचार के कारण हुआ। कुछ लोग कहेंगे- "क्या शैतान भी परमेश्वरकी पकड़ में नहीं था? परमेश्वर ने शैतान को पूर्व नियति तय की कि वह मनुष्यों को इस रीति से भ्रष्ट करेगा, और उसके बाद उसने मनुष्यों में अपना कार्य सम्पन्न किया" क्या परमेश्वर ने वास्तव में शैतान को पूर्व नियुक्त किया कि वह मनुष्यों को भ्रष्ट करे? वह तो अत्याधिक उत्सुक था कि मानवजाति सामान्य रूप में मानव जीवन जीये, क्या वह मनुष्यों को परेशान करना चाहता था? तब वह क्यों बेकार में शैतान को परास्त करने और मानवता को बचाने का काम करेगा? मनुष्य जाति का विद्रोहीपन किस प्रकार से पूर्व नियुक्त किया जा सकता है? वास्तव में यह शैतान के द्वारा परेशान किये जाने के कारण कारण था, परमेश्वर कैसे इसे पूर्व नियुक्त कर सकते थे? शैतान परमेश्वर की पकड़ में है, इस बारे में आपकी समझ और मैं जो बोल रहा हूं, दो अलग-अलग बातें हैं। आप जब कहते हैं कि "परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और शैतान उसकी पकड़ में है", तब उसका अर्थ है कि शैतान परमेश्वर की मानेगा, उन्हें मना नहीं करेगा या उनके साथ विश्वासघात नहीं करेगा। क्या आप ने यह नहीं कहा कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है? आपका ज्ञान अत्याधिक अमूर्त है, और यह वास्तविकता से हटकर है, यह पानी पकड़ने जैसा है और किसी काम का नहीं है! परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, यह कतई गलत नहीं है। प्रधान स्वर्गदूत ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया, क्योंकि परमेश्वर ने आरंभ में उसे अधिकार का एक भाग दिया। निश्चय ही यह घटना अनापेक्षित थी, जैसे कि हव्वा सांप के बहकावे में आ गई किंतु इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि शैतान कैसे विश्वासघात करता है, वह परमेश्वर के समान सर्वशक्तिमान नहीं है। जैसा आपने कहा, शैतान सामर्थी है, वह चाहे जो भी करे, परमेश्वर का अधिकार उसे सदैव पराजित करता है। "परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, और शैतान परमेश्वर की पकड़ में है," इस बात का यही वास्तविक अर्थ है। इस कारण, परमेश्वर और शैतान के बीच में एक बार में एक चरण का युद्ध सम्पन्न होता है आगे, वह शैतान की चालबाजियों के अनुसार अपने कार्य की योजना बनाता है,कह सकते हैं कि युग के अनुसार परमेश्वर अपने कार्य की योजनायें बनाता है। वह लोगों को उद्धार देता और अपनी बुद्धि एवं सर्वश्रेष्ठ सामर्थ को प्रकट करता है। इसी प्रकार, अंत के दिनों के कार्य अनुग्रह के युग से पहले पूर्व नियत नहीं किये गये थे; और वे इसके समान पहले से क्रमबद्ध रूप में पूर्व नियुक्त नहीं किये गये थे - प्रथम, मनुष्य के बाहरी स्वभाव में परिवर्तन किया जाएगा, दूसरा, मनुष्य को ताड़ना देना और परीक्षा में डालना, तीसरा मनुष्यों को मृत्यु का अनुभव देना, चैथा मनुष्य को परमेश्वर से प्रेम का अनुभव देना, और सृजित प्राणी के रूप में अपने संकल्प को अभिव्यक्त करना, पांचवां, मनुष्य परमेश्वर की इच्छा को जानें, और परमेश्वर को पूर्ण रीति से जानें, और तब परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करें। उसने ये सब योजनायें अनुग्रह के युग के दौरान नहीं बनाई। परंतु उसने इन बातों की योजना वर्तमान युग में बनाई। शैतान कार्य कर रहा है - जैसे कि परमेश्वर भी कार्य कर रहे हैं। शैतान अपने भ्रष्ट स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, जबकि परमेश्वर सीधे बोलता है और तत्व रूप में कुछ बातों को प्रकट करता है। आज यही कार्य किया जा रहा है, और कार्य करने का यही तरीका या सिद्धांत बहुत पहले, संसार के सृजन के बाद उपयोग में लाया गया था।

सर्वप्रथम, परमेश्वर ने आदम-हव्वा को सृजा, और उसने सांप को भी सृजा। अन्य सभी जन्तुओं में सांप सबसे अधिक विषैला था, उसकी देह में विष था, और शैतान उस विष का उपयोग किया करता था। यह सांप था जिसने पाप करने के लिये हव्वा की परीक्षा की, हव्वा के बाद आदम ने भी पाप किया, और तब वे दोनों भले और बुरे के बीच भेद करने में सक्षम हो गये। यदि यहोवा जानते कि सांप हव्वा को परीक्षा में डालेगा, और हव्वा आदम को परीक्षा में डालेगी, तब उसने क्यों उन सबको वाटिका के भीतर रखा? यदि वह पहले से इन बातों को जानता, तो वह सांप को क्यों रचता और अदन की वाटिका के भीतर रखता? अदन की वाटिका में भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष क्यों लगाया गया था? क्या वह चाहता था कि वे उसके फल को खाये? जब यहोवा आया, तब न आदम और न हव्वा ने उसके सामने आने का साहस किया, और केवल तब ही यहोवा को पता चला कि उन्होंने भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खा लिया है और वे सांप की धूर्तता का शिकार बन चुके हैं। अंत में, उसने सांप को भी शाप दिया, और उसने आदम और हव्वा को भी शाप दिया। जब उन दोनों ने उस वर्जित फल को खाया तब यह बात परमेश्वर को पता नहीं थी। मानवजाति बुरे व्यक्तित्व और यौन संबंधों में स्वच्छंदता की सीमा तक भ्रष्ट हो गयी, यहां तक कि उनके हृदयों में आने वाले सभी विचार बुरे और अधर्मयुक्त थे। जो कुछ उनके हृदय में उत्पन्न होता या वे विचार करते थे बुरे और अधर्मयुक्त थे। वे सब गंदे विचार थे। इस प्रकार, यहोवा तब मानवजाति को बनाने से पछताया। उसके बाद उसने संसार को जलप्रलय के द्वारा नाश करने का अपना कार्य सम्पन्न किया, जिसमें नूह और उसके पुत्र बचाये गये। कुछ बातें वास्तव में इतनी अधिक उन्नत और अलौकिक नहीं हैं, जैसी लोग कल्पना करते हैं। कुछ लोग पूछते हैं - जबकि परमेश्वर जानते थे कि प्रधान स्वर्गदूत विश्वासघात करेगा, तो परमेश्वर ने उसकी सृष्टि क्यों की? तथ्य इस प्रकार है, कि जब इस पृथ्वी का अस्तित्व ही नहीं था, तब प्रधान स्वर्गदूत (शैतान) स्वर्ग के सभी स्वर्गदूतों में सबसे महान् था। स्वर्ग के सभी स्वर्गदूत उसके अधिकार क्षेत्र के आधीन थे। और यह अधिकार उसे स्वयं परमेश्वर ने ही दिया था। परमेश्वर के बाद वह स्वर्ग के स्वर्गदूतों में सर्वोच्च था। बाद में जब परमेश्वर ने मनुष्यों की सृष्टि की तब प्रधान स्वर्गदूत ने पृथ्वी पर परमेश्वर के विरुद्ध और भी बड़ा विश्वासघात किया। हम कहते हैं कि उसने परमेश्वर के प्रति यह विश्वासघात इसलिये किया, क्योंकि वह मनुष्य जाति का प्रबंधन और परमेश्वर के अधिकार से बढ़कर अधिकार को पाना चाहता था। यह प्रधान स्वर्गदूत ही था जिसने हव्वाको बहकाकर पाप कराया, उसने ऐसा इसलिये किया क्योंकि वह पृथ्वी पर अपना साम्राज्य, स्थापित करना चाहता था, और चाहता था कि मानवजाति परमेश्वर के साथ विश्वासघात करे और उसकी आज्ञा मानें। उसने देखा कि बहुत सी सृष्टि है जो परमेश्वर की आज्ञा मानते हैं, स्वर्गदूत उसकी आज्ञा मानते हैं, और पृथ्वी पर लोग भी उसकी आज्ञा मानते हैं। पक्षी और पशु, वृक्ष और जंगल, पर्वत और नदियां और सभी वस्तुयें जो पृथ्वी पर हैं, वे मनुष्यों अर्थात् आदम और हव्वा के आधीन हैं - और उस समय आदम और हव्वा परमेष्वर की आज्ञा मानते थे। इस कारण वह प्रधान स्वर्गदूत परमेश्वर के अधिकार से अधिक बढ़कर अधिकार चाहता था और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना चाहता था। बाद में अन्य दूसरे, बहुतेरे स्वर्गदूतों ने भी उसकी अगुवाई में विश्वासघात किया और वे सब विभिन्न अशुद्ध आत्मायें बन गये। क्या आज मानवजाति की उन्नति या विकास का कारण प्रधान स्वर्गदूत का भ्रष्टाचार नहीं है? मानवजाति आज जैसी है, वैसी केवल इसलिये है क्योंकि छाने वाले करूब ने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया और मानव जाति को भ्रष्ट कर दिया। परमेश्वर का यह चरणबद्ध कार्य कहीं भी ऐसा अमूर्त और आसान नहीं है जैसा लोग कल्पना करते हैं। शैतान ने एक कारणवश परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया। लोग इतनी आसान सी बात को समझ नहीं पाते। परमेश्वर ने क्यों स्वर्ग और पृथ्वी और सब वस्तुओं की सृष्टि की, और शैतान की भी सृष्टि की? जबकि परमेश्वर शैतान को इतना तुच्छ जानते हैं, और शैतान परमेश्वर का शत्रु है, तो परमेश्वर ने उसको क्यों सृजा? शैतान का सृजन, करते समय परमेश्वर एक शत्रु का सृजन नहीं कर रहा था, परमेश्वर ने वास्तव में एक शत्रु का सृजन नहीं किया था, परंतु उसने एक स्वर्गदूत का सृजन किया था, इस स्वर्गदूत ने बाद में परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया। उसे इतना बड़ा पद दिया गया था कि उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की सोच ली। कोई इसे संयोग कहा जा सकता है, परंतु यह एक अपरिहार्य बात भी थी। यह बात ऐसी है जैसे कोई व्यक्ति एक निश्चित आयु के बाद अवश्य मरेगा, सभी बातें पहले ही एक निश्चित स्तर तक विकसित हो चुकी है। कुछ ऐसे भी वाहियात लोग मिलेंगे, जो कहेंगे, जबकि शैतान आपका शत्रु है, आपने उसे क्यों सृजा? क्या आप नहीं जानते थे कि प्रधान स्वर्गदूत आपके साथ धोखा करेगा? क्या आप अनंत काल से अनंतकाल में नहीं देख सकते थे? क्या आप उसका स्वभाव नहीं जानते? जबकि आपको स्पष्ट रूप से पता था कि वह आपको धोखा देगा, तब आपने उसे प्रधान स्वर्गदूत क्यों बनाया? यदि कोई उसके विश्वासघात की बात की अनदेखी भी करे, तब भी उसने कितने स्वर्गदूतों को बहकाया और वे मरणहार मनुष्यों के संसार में उतर आये, और मनुष्यों को भ्रष्ट कर दिया। आज के दिन तक, आप अपने 6000 वर्षीय प्रबंधन की योजना को पूरा नहीं कर सके। क्या यह सही है? क्या आप अपने आपको अनावश्यक रूप में बहुत सी तकलीफों में नहीं डाल रहे हैं? कुछ अन्य लोग यह भी कहेंगे - क्या वर्तमान समय में भी शैतान ने मानवजाति को भ्रष्ट नहीं किया है, क्या परमेश्वर मानवजाति को इस प्रकार से नहीं बचायेगा। इस प्रकार काम करके परमेश्वर की बुद्धि और सर्वसामर्थ्य दिखाई ही नहीं देती। इस प्रकार काम करने पर परमेश्वर की बुद्धि स्वयं को कहां अभिव्यक्त करती? परमेश्वर ने इसलिये शैतान के लिये मानवजाति की सृष्टि की, भविष्य में परमेश्वर अपने सर्वसामर्थ्य को एक भिन्न रीति से प्रकट करेगा, अन्यथा मनुष्य परमेश्वर की बुद्धि को कैसे खोजेगा? यदि मनुष्य परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करता और उसके प्रति विद्रोह के काम नहीं करता, तो उसके कामों के प्रकटीकरण की आवश्यकता ही नहीं होगी। यदि सम्पूर्ण सृष्टि उसकी आराधना करे और आज्ञापालन करे, तब उसके पास करने के लिए कोई काम नहीं होगा। और यह वस्तुओं की वास्तविकता से अलग बात है, क्योंकि परमेश्वर में कुछ भी गंदगी नहीं है, और इसलिये वह गंदगी का सृजन नहीं कर सकता। वह अपने कामों को अब केवल इसलिये प्रकट करता है कि अपने शत्रु को परास्त करे, और मानवजाति का उद्धार करे, जिसे उसने दुष्टात्माओं और शैतान को पराजित करने के लिये सृजा था, जो उससे घृणा करते हैं, विश्वासघात करते हैं, और उसका प्रतिरोध करते हैं, वे जो उसके अधिकार क्षेत्र में थे, और जो सबसे आरम्भ में उसी के पक्ष में थे। वह इन दुष्टात्माओं को पराजित करना चाहता है, ताकि ऐसा करके वह सब पर अपने सर्वसामर्थ्यपन को प्रकट करे। मानवजाति और पृथ्वी पर की सभी वस्तुएं अब शैतान के प्रभाव के आधीन हैं और दुष्ट के आधीन हैं। परमेश्वर अपने कार्यों को सबके ऊपर प्रकट करना चाहता है - ताकि लोग उसे जान सकें, और शैतान को पराजित करना और अपने शत्रुओं को सम्पूर्ण रूप से नाश करना चाहता है। उसके इस कार्य की सम्पूर्णता उसके कार्यों के प्रकट होने के द्वारा सम्पन्न की जाती है। उसके सभी प्राणी शैतान के अधिकार में है, और इसलिये वह अपने सर्वसामर्थ्य को उन पर प्रकट करना चाहता है और उसके द्वारा शैतान को पराजित करना चाहता है। यदि शैतान नहीं होता, तो उसे उसके कामों को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती। यदि शैतान की परेशानियों का उत्तर नहीं देना होता, तो उसने मानवजाति की सृष्टि करके उसे अदन की वाटिका में रहने न दिया होता और न उनकी अगुवाई की होती। उसने शैतान के विश्वासघात से पहले स्वर्गदूतों और छानेवाले करूब पर अपने सभी कार्य प्रकट क्यों नहीं किये? यदि स्वर्गदूतों और प्रधान स्वर्गदूत ने उसको जाना होता और आरम्भ में उसकी आज्ञा मानी होती, तब उसे उन अर्थरहित कामों को करने की क्या आवश्यकता होती? शैतान और दुष्टात्माओं के अस्तित्व के कारण ही लोग परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और ऊपर तक विद्रोह करने वाले स्वभाव से भरे हुए हैं, और इसलिये परमेश्वर अपने कामों को प्रकट करना चाहता है। क्योंकि वह शैतान से युद्ध करना चाहता है, तो उसे शैतान को पराजित करने के लिये अपने स्वयं के अधिकार का उपयोग करना चाहिये और अपने सभी कामों को काम में लाना चाहिये ऐसा करने पर, उसके उद्धार का कार्य जिसे वह मनुष्यों के बीच सम्पन्न करता है। उसमें वह मनुष्यों को उसकी बुद्धि और सर्वसामर्थ्य को देखने और समझने का अवसर देगा। आज परमेश्वर जो काम करते हैं, वह अर्थपूर्ण है, और किसी भी तरह से वैसा नहीं है, जैसा कुछ लोग कहते हैं- "क्या आप जो काम करते हैं वह विरोधाभासी नहीं हैं? क्या आप एक के बाद एक जो काम करते जा रहे हैं, वह स्वयं को थकाना या कष्ट देना नहीं है? आपने शैतान को सृजा, तब उसे विश्वासघात करने और आपका प्रतिरोध करने दिया। आपने मानवजाति की सृष्टि की, और तब उसे शैतान के आधीन जाने दिया, और आदम-हव्वा को परीक्षा में पड़ने दिया। जबकि आपने यह सब कुछ जानकर किया है, तब आप मानवजाति से नफरत क्यों करते हैं? आप शैतान से नफरत क्यों करते हैं? क्या ये सब बातें आपके द्वारा ही नहीं बनाई गई हैं? उसमें आपके लिये घृणा करने वाली क्या बात है? बहुत से वाहियात लोग यह कहेंगे - वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं, परन्तु वे उनके हृदयों में वे परमेश्वर की शिकायत करते हैं - कितनी विरोधाभासी बात है! आप सत्य को नहीं समझते, आपके मन में बहुत से अलौकिक विचार आते हैं, और आप तब दावा करते हैं कि यह परमेश्वर की गलती है - आप कितने वाहियात हैं! यह आप हैं जो सत्य में हेराफेरी करते हैं, यह परमेश्वर की गलती नहीं है! कुछ लोग तो बार-बार शिकायत करते हैं, और करेंगे! यह आप ही थे जिसने शैतान को सृजा, और आपने ही मानवजाति को उसे दे दिया। मानवजाति में शैतानिक स्वभाव है, उन्हें क्षमा करने के बदले में आप उन्हें एक हद तक नफरत करते हैं। आरंभ में आपने मनुष्य जाति को एक हद तक प्रेम किया। आपने शैतान को मनुष्यों के संसार में गिराया और अब आप मानवजाति से नफरत करते हैं। यह आप ही हैं जो मानवजाति से नफरत और प्रेम करते हैं। इन बातों की क्या व्याख्या है? क्या यह परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं? इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आपका दृष्टिकोण क्या है, स्वर्ग में यही हुआ था, छानेवाले स्वर्गदूत ने इसी रीति से परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया, और मानवजाति इस प्रकार भ्रष्ट की गई, और आज के दिन तक यही हाल चला आ रहा है। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप किन शब्दों में कहते हैं, पूरी कहानी यही है। परन्तु आपको यह समझना चाहिये कि परमेश्वर वर्तमान में या आज जो काम करता है, वह आपके उद्धार के लिये करता है और शैतान को पराजित करने के लिये करता है।

स्वर्गदूत चूंकि निर्बल थे और उसमें कोई योग्यता नहीं थी, और यह सम्भव था कि यदि उन्हें अधिकार दिये जाते, वे घमण्डी बन जाते, यह बात प्रधान स्वर्गदूत के बारे में अधिक सच थी, जो पद में अन्य सब स्वर्गदूतों से उच्चतर पद पर था। प्रधान स्वर्गदूत एक तरह से सभी स्वर्गदूतों का राजा था। लाखों-करोड़ों स्वर्गदूत उसकी आधीनता में थे, और यहोवा के आधीन उसका अधिकार और पद अन्य सभी स्वर्गदूतों से बढ़कर था। वह 'यह' और 'वह' करना चाहता था, और वह स्वर्गदूतों को मनुष्यों के संसार में लाना चाहता था, कि संसार पर राज्य करे। परमेश्वर ने कहा कि वह ब्रह्माण्ड का प्रशासन करता है - और प्रधान स्वर्गदूत ने कहा कि ब्रह्माण्ड का प्रशासन उसका है, और इसी कारण उसने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया। स्वर्ग में, परमेश्वर ने एक और संसार की सृष्टि की है, प्रधान स्वर्गदूत अर्थात लूसीफर उस संसार पर अधिकार करना चाहता था और वहां से मनुष्यों के जगत में भी उतरना या आना चाहता था। क्या परमेश्वर उसे ऐसा करने की अनुमति दे सकते थे? इस कारण उन्होंने उसे स्वर्ग से बाहर कर दिया और आकाश में गिरा दिया। तब से उसने मनुष्यों को भ्रष्ट करना शुरू कर दिया, और तब से मानवजाति के उद्धार के लिये परमेश्वर ने उसके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है, उसने इन छह सहस्राब्दियों का उपयोग उसे परास्त करने में किया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विषय में आपकी अवधारणा परमेश्वर द्वारा अब किये जा रहे कामों से असंगत है, वह व्यवहार में कार्य नहीं करती और अत्याधिक निरर्थक है! वास्तव में, परमेश्वर ने प्रधान स्वर्गदूत के द्वारा विश्वासघात करने के बाद ही उसे अपना शत्रु घोषित किया। इसी विश्वासघात के कारण, जब वह मनुष्यों के संसार में आया, उसने मानवजाति को कुचला और मानवजाति इस स्तर तब भ्रष्टता में बढ़ती गयी। इसके बाद परमेश्वर ने शैतान से शपथ खाकर कहा, मैं तुझे पराजित करूंगा और मेरी सृष्टि, मानवजाति का उद्धार करूंगा। शैतान ने आरंभ में यह बात नहीं मानी और कहा, हे परमप्रधान आप मेरा क्या बिगाड़ लेंगे? क्या आप मुझे सचमुच में हवा में आकाश के बीच गिरायेंगे? क्या आप सचमुच मुझे पराजित कर सकते हैं? और जब परमेश्वर ने उसे आकाश मे गिरा दिया, परमेश्वर ने उस पर ध्यान नहीं दिया और वह मानवजाति का उद्धार करने के अपने काम में व्यस्त हो गया, जबकि शैतान ने परेशानियां उत्पन्न करने का काम जारी रखा। शैतान जो भी कर सकता है उसके लिये परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिये कि उसने उसे वे शक्तियां दी हैं, वह इन बातों या शक्तियों के साथ हवा में, आकाश में गिराया गया और आज के दिन तक ये शक्तियां उसके पास हैं। परमेश्वर ने उसे गिराया अवश्य किंतु उसे अधिकार उससे नहीं छीने। इसलिये वह मानव जाति को लगातार भ्रष्ट करता गया। परमेश्वर दूसरी ओर, मानवजाति के उद्धार के कार्य में लगे रहे। जिस मानवजाति को उसके सृजन के बाद ही शैतान ने भ्रष्ट कर दिया था। परमेश्वर ने अपने कार्यों को स्वर्ग में प्रकट नहीं किया अर्थात् पृथ्वी की सृष्टि से पहले, उसने मनुष्यों को अवसर दिया कि वे संसार में उसके कामों को देखें, जो उसने स्वर्ग में किये थे और मनुष्यों की स्वर्ग की बातों में अगुवाई की। उसने उन्हें बुद्धि और समझ दी और उन्हें उस संसार में रहने में अगुवाई दी। स्वाभाविक है कि आपमें से किसी ने भी इसके बारे में पहले नहीं सुना है, बाद में, जब परमेश्वर ने मानव जाति की सृष्टि की, प्रधान सेनापति मानवजाति को भ्रष्ट करने लगा, पृथ्वी पर, और समस्त मानव जाति पर सकंट आ गया। केवल इस समय पर परमेश्वर ने शैतान के विरुद्ध अपना युद्ध आरंभ किया, और केवल इसी समय लोगों ने उसके कार्यों को देखा। आरंभ में उसके काम मनुष्यों के लिये गुप्त थे। जब शैतान आकाश में गिराया गया, तब उसने इस बात की चिंता की और परमेश्वर ने अपने निज कार्य की चिन्ता की, और उसके विरुद्ध लगातार युद्ध छेड़ दिया, और सब प्रकार से अंतिम दिनों तक युद्ध चलता है। अब वह समय है कि शैतान नष्ट किया जाना चाहिये। आरंभ में परमेश्वर ने उसे अधिकार दिया, बाद में उसे आकाश में गिरा दिया, परंतु शैतान ने जोरदार विरोध किया। बाद के दिनों में, पृथ्वी पर उसने मानवजाति को भ्रष्ट किया, परंतु तब परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्यों का प्रबंध कर रहे थे। परमेश्वर लोगों के प्रबंधन का उपयोग शैतान को पराजित करने में करते हैं। लोगों को भ्रष्ट करके शैतान मनुष्यों को परमेश्वर के काम में अवरोध उत्पन्न करने और उनके स्वयं के भाग्य का पटाक्षेप करने में करते हैं। दूसरी ओर, परमेश्वर का कार्य मनुष्यों का उद्धार करना है। परमेश्वर के कार्य के किस चरण का अर्थ या संबंध मानवजाति के उद्धार से नहीं है? किस चरण का अर्थ उन्हें धार्मिकतायुक्त बनाना और ऐसे जीवन में ले जाना नहीं है जो मनुष्य की छवि ऐसी बनाता है जिससे प्रेम किया जा सके? शैतान, हालांकि यह कार्य नहीं करता। वह मानव जाति को भ्रष्ट करने का कार्य करता है। और सारे ब्रह्माण्ड में यही करता है। निश्चय ही परमेश्वर भी अपने काम को करते हैं। वे शैतान की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते। इससे फर्क नहीं पड़ता कि शैतान के पास कितना अधिकार है, उसे वह अधिकार परमेश्वर की ओर से ही दिया गया है, परमेश्वर ने उसे अपना पूरा अधिकार नहीं दिया है और इसलिये वह चाहे जो कुछ करे वह परमेश्वर से ऊपर नहीं जा सकता और सदैव परमेश्वर की पहुंच या पकड़ में है। परमेश्वर ने उसके स्वर्ग में रहते समय अपने कार्यों को उस पर प्रकट नहीं किया था। उसने केवल शैतान को अपने अधिकार में से कुछ भाग दिया था, अर्थात बहुत छोटा भाग, जिससे वह स्वर्गदूतों पर नियंत्रण कर सके। इसलिये वह चाहे जो भी करे, वह परमेश्वर के अधिकार को लांघ नहीं सकता, क्योंकि परमेश्वर ने उसे जो अधिकार दिया है, वह सीमित अधिकार है। जब परमेश्वर कार्य करते हैं, शैतान परेशानियां उत्पन्न करता है। अंत के दिनो में उसकी परेशानियों का अंत हो जायेगा, इसी प्रकार परमेश्वर का कार्य भी पूरा होगा, और परमेश्वर व्यक्तियों को जिस प्रकार का बनाना चाहते हैं, वह कार्य भी पूरा होगा। परमेश्वर लोगों को सकारात्मक दिशा निर्देश देते हैं, उसका जीवन, जीवन का जल है, उसकी माप नहीं, वह अथाह और असीम है। शैतान ने मनुष्य को एक हद तक भ्रष्ट किया है, अंत में, जीवन का जीवित जल मनुष्य को पूर्ण करेगा, और शैतान के लिये हस्तक्षेप करना और अपना काम करना असंभव हो जायेगा। इस प्रकार, परमेश्वर इन लोगें को पूरी तरह हासिल कर लेगा। शैतान अब भी इन बातों को मानने से मना करता है, वह लगातार स्वयं को परमेश्वर के विरोध में खड़ा करता है, परंतु परमेवश्वर उसे महत्व नहीं देता। उसने कहा , "मैं शैतान की सभी अंधकारमय शक्तियों और उनके अंधकारमय प्रभावों पर जय प्राप्त करूंगा। यह कार्य अब शरीर में किया जाना चाहिये और यही देहधारण या अवतार का अभिप्राय है। यह शैतान को पराजित करने के चरण को अंतिम दिनों में पूरा करने का कार्य है, शैतान से जुड़ी सभी बातों का अंत करना है। परमेश्वर की शैतान पर विजय एक निष्चित कार्य है! वास्तव में शैतान बहुत पहले असफल हो चुका है। जब सुसमाचार बड़े लाल ड्रेगन के देश में फैलने लगा, अर्थात देह धारण करने वाले परमेश्वर ने काम करना आरंभ कर दिया, और यह कार्य गति पकड़ने लगा, शैतान बुरी तरह परास्त हो गया, क्योंकि परमेश्वर के देहधारी होने का अभिप्राय शैतान को पराजित करना था। शैतान ने देखा कि परमेश्वर एक बार फिर शरीर बना और उसने अपने कार्य को आरंभभी कर दिया, और उसने देखा कि कोई शक्ति उसके कार्य को रोक नहीं सकती। तब वह अवाक रह गया, जब उसने परमेश्वर के इस कार्य को देखा और उसने फिर कुछ और करने का साहस नहीं किया। आरंभ में शैतान ने सोचा कि उसके पास भी बहुत बुद्धि है, और वह परमेश्वर के काम में हस्तक्षेप करने और परेशानियों को डालने लगा। परंतु उसने यह नहीं आशा की थी कि परमेश्वर एक बार फिर देहधारण कर चुका है, और परमेष्वर ने उसके कार्यो को, षैतान के विद्रोह को प्रकाशन के तौर पर मानवजाति को दण्ड देने के लिए इस्तेमाल किया, और इस प्रकार मानवजाति को जीता और शैतान को पराजित किया। परमेश्वर शैतान से अधिक बुद्धिमान है, और उसके काम शैतान के कामों से कहीं बढ़कर है। इसी कारण, मैंने पहले ही ये बात कही थी कि मैं जो काम करता हूं वे शैतान की चालबाजियों के प्रत्युत्तर में करता हूं। अंत में, मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ शक्ति और शैतान की निर्बलता को प्रकट करूंगा। जब परमेश्वर अपने कार्य को करते हैं, शैतान पीछे से आकर गड़बड़ियां करता है, और वह तब तकयह काम करता रहेगा जब तक कि अंत में उसके काम का नाश नहीं हो जाता - उसे पता भी नहीं चलेगा कि उस पर चोट किसने की! उसे सत्य का ज्ञान तब होगा, जब वह पहले ही कुचला और चूर-चूर कर दिया जायेगा और उस समय तक उसे आग की झील में डाल दिया जायेगा। तब क्या वह पूरी तरह से निरुत्तर नहीं हो जायेगा? क्योंकि उसके पास क्रियान्वयन के लिये कुछ भी चालें नहीं बचेगी!

यह चरणबद्ध रूप में किया जाने वाला वास्तविक कार्य है जो मानवजाति के लिये परमेश्वर के हृदय को अकसर शोक के भारी बोझ से दबाता है, इसलिये शैतान के साथ उसका युद्ध चलते-चलते 6000 वर्ष बीत चुके हैं। इसलिये परमेश्वर ने यह कहा - मैं फिर कभी मानवजाति का रचना नहीं करूंगा और न स्वर्गदूतों को अधिकार प्रदान करूंगा। उसके बाद से जब भी स्वर्गदूत पृथ्वी पर किसी काम से आये, उन्होंने केवल परमेश्वर द्वारा दिये गये कार्य को ही किया। उसने स्वर्गदूतों को कभी कोई अधिकार नहीं दिया। तब इस्राएली जिन स्वर्गदूतों को देखते थे, वे अपना काम कैसे सम्पन्न करते थे? वे स्वयं को सपनों में प्रकट करते थे और यहोवा के कहे शब्दों को पहुंचाते थे। जब यीशु क्रूस पर चढ़ाये जाने के तीन दिन बाद जी उठे, यह स्वर्गदूत थे जिन्होंने कब्र के पत्थर को एक ओर लुढ़का दिया था, परमेश्वर के आत्मा ने व्यक्तिगत रूप में यह कार्य नहीं किया था। स्वर्गदूत ही इस प्रकार के काम करते थे, वे सहायक की भूमिका निभाते थे और उनके पास कोई अधिकार नहीं था। क्योंकि परमेश्वर ने दोबारा उन्हें कभी अधिकार नहीं दिया। कुछ समय पृथ्वी पर काम करने वाले लोग जिन्हें परमेश्वर ने पृथ्वी पर उपयोग किया, परमेश्वर का स्थान लेने लगे और उन्होंने कहा - मैं ब्रम्हाण्ड पर अधिकार चाहता हूँ,- मैं तीसरे स्वर्ग में खड़ा होना चाहता हूँ! मैं संप्रभुता की सामर्थ्य को धारण करना चाहता हूं! बहुत दिनों तक काम करने के बाद वे घमंडी और हठी बन जाते हैं, वे पृथ्वी पर संप्रभुता का अधिकार धारण करना चाहते हैं, वे एक नया राष्ट्र स्थापित करना चाहते थे, वे सब कुछ अपने पांवों के नीचे देखना और तीसरे स्वर्ग में खड़े होना चाहते थे। क्या आप नहीं जानते कि आप परमेश्वर के द्वारा उपयोग किये गये एक मनुष्य मात्र हैं? आप तीसरे स्वर्ग तक कैसे चढ़ सकते हैं? परमेश्वर पृथ्वी पर काम करने उतरते हैं, शांत और बिना शोर किये, और अपना काम पूरा करके चुपचाप वापस चले जाते हैं। वे कभी मनुष्यों के समान हो-हल्ला नहीं करते, परंतु अपने काम को वास्तविक रूप में करते हैं, और न वे कभी किसी चर्च में जाकर चिल्लाते हैं कि मैं तुम सबको मिटा दूंगा! मैं तुम्हें शाप दूंगा, और तुम्हारी ताड़ना करूंगा! वे बस अपना काम करते हैं और जब वह पूरा हो जाता है, चले जाते हैं। वे धार्मिक पास्टर जो बीमारों को चंगा करते और दुष्टात्माओं को निकालते हैं, मंच से दूसरों को उपदेश देते हैं, बड़ी-बड़ी, लंबी-लंबी और दिखावे भरी बातें बोलते हैं, और उन विषय पर चर्चा करते हैं जो वास्तविक नहीं हैं, वे भीतर तक गर्व और हठ से भरे हैं! वे प्रधान स्वर्गदूत के वंशज हैं!

आज के दिन तक, लगभग 6000 वर्षों से अपना काम करते हुए परमेश्वर ने अपने बहुत से कामों को पहले ही प्रकट किया है, मुख्य रूप से शैतान को पराजित करने और समस्त मानवजाति का उद्धार करने का कार्य। वह इस अवसर का उपयोग करके स्वर्ग के प्रत्येक प्राणी, पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी और समुद्र के प्रत्येक प्राणी और पृथ्वी पर परमेश्वर की सृष्टि के अंतिम प्राणी या वस्तु तक को यह अवसर प्रदान करता है ताकि वे परमेश्वर की सर्वसामर्थ्य और सभी कामों को देखें। वह शैतान को पराजित करने के अवसर का लाभ उठाकर मनुष्यों पर अपने सभी कार्य प्रकट करता है, ताकि वे उसकी स्तुति कर सकें और शैतान को पराजित करने वाली उसकी बुद्धि को ऊंचा उठा सके। पृथ्वी पर और स्वर्ग में, और समुद्र की प्रत्येक वस्तु उसे महिमा देती है, और उसके सर्वशक्तिमान होने यशगान करती है, उसके सभी कामों का गुणगान करती है, और उसके पवित्र नाम की जय-जयकार करती है। यह उसके द्वारा शैतान को परास्त करने का प्रमाण है, यह उसके द्वारा शैतान पर जय पाने का प्रमाण है, और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह उसके द्वारा मानवजाति केउद्धार का भी प्रमाण है। परमेश्वर की समस्त सृष्टि परमेश्वर को महिमामंडित करती है, अपने शत्रु को पराजित करके, विजयी होकर लौटने के लिये उसकी स्तुति करती है, और एक जयवंत और महान् राजा के रूप में वे उसकी प्रशंसा करते हैं। उसका उद्देश्य केवल शैतान को पराजित करना ही नहीं है, इस कारण उसके कार्य को चलते हुये 6000 वर्ष हो चुके हैं। वह शैतान की पराजय को मानवजाति के उद्धार के लिए उपयोग करता है, वह शैतान की पराजय के द्वारा अपने सभी कामों और अपनी सारी महिमा को प्रकट करता है। वह महिमा पायेगा, और स्वर्गदूतों की समस्त सेना भी उसकी महिमा देखेगी। स्वर्ग में संदेशवाहक, पृथ्वी पर मनुष्य, और पृथ्वी की सभी सृष्टि सृजनकर्ता की महिमा को देखेगी। यही वह काम है जो वह करता है। स्वर्ग में उसकी सृष्टि और पृथ्वी पर उसकी सृष्टि, सभी उसकी महिमा को देखेंगे। और वह शैतान को पराजित करने के बाद विजय के उल्लास के साथ वापस लौटेगा, और समस्त मानव जाति को अपनी प्रशंसा करने का अवसर देगा। वह सफलतापूर्वक इन दोनों पहलुओं को प्राप्त करेगा। अंत में समस्त मानवजाति उसके द्वारा जीत ली जायेगी और वह उन सबका सर्वनाश कर देगा जो उसका विरोध करते हैं या विद्रोह करते हैं, अर्थात् वे लोग जो शैतान के साथ हैं। आज आप परमेश्वर के इन सब कामों को देखते हैं,- परंतु आप फिर भी प्रतिरोध करते हैं और विद्रोह भी करते हैं, और समर्पण नहीं करते। आप अपने भीतर बहुत सी बातें रखते हैं, और आप जो चाहते हैं, वही करते हैं, आप अपनी अभिलाषाओं के अनुसार और अपनी पसंद के अनुसार चलते हैं - यह विद्रोहीपन है, और यही प्रतिरोध करना है। जब परमेश्वर पर विश्वास शरीर के लिये, अपनी लालसाओं की पूर्ति और अपनी पसंद के लिये, संसार के लिये, और शैतान के लिये उपयोग होता है तब वह अशुद्ध है, गंदा है। वह विरोधी व बलवा करने वाला है। आज बहुत प्रकार के विश्वास चलन में हैं - कुछ संकट से बचने के लिये आश्रय खोजते हैं, कुछ अन्य आशीषें पाना चाहते हैं, जबकि कुछ रहस्यमय बातों को समझना चाहते हैं, और कुछ धन कमाने के प्रयास में हैं। ये सभी प्रतिरोध के अलग अलग तरीके हैं; ये ईशनिंदा हैं! जब हम यह कहते हैं कि कोई व्यक्ति प्रतिरोध या विद्रोह करता है-तो क्या वह व्यक्ति इसी तरफ संकेत नहीं कर रहा होगा?हुत से लोग अब कुड़कुड़ाते रहते हैं, शिकायतें करते या दोष लगाते हैं। ये सब बातें दुष्टों के द्वारा की जाती हैं, वे मानव प्रतिरोध और विद्रोहीपन हैं, ऐसे व्यक्ति शैतान के अधिकार और नियंत्रण में हैं। परमेश्वर जिन्हें स्वीकार कर लेता है, ये वे लोग हैं जो पूर्ण रूप से उसकी अधीनता में रहते हैं - जो शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिए गये थे, परंतु जिन्हें अब परमेश्वर के कार्य के द्वारा बचा लिया और जीत लिया गया है, वे सब क्लेश से होकर गुजरे हैं और अंत में परमेश्वर द्वारा पूरी तरह हासिल कर लिये गये हैं, और अब शैतान के अधिकार में नहीं रहते, और अधार्मिकता से पूरी तरह मुक्त किये गये हैं, और अब वे पवित्र जीवन जीना चाहते हैं - ये सबसे अधिक पवित्रजन हैं - वे पवित्र जन हैं। यदि आपके वर्तमान कार्य परमेश्वर द्वारा निर्धारित अपेक्षाओं के एक भाग से मेल नहीं खाते, तो आपको अलग कर दिया जायेगा। इसमें कोई विवाद नहीं है। सब बातें आज के आधार पर की जाती हैं, यद्यपि उसने आपको पूर्व निर्धारित कर दिया और चुन लिया है, फिर भी आपके वर्तमान कार्य ही आपका परिणाम निर्धारित करेंगे। यदि आज आप बने नहीं रहते तो आपको अलग कर दिया जायेगा। यदि आप आज ऊपर नहीं उठ सकते तो आप बाद में उठने की आशा भी कैसे कर सकते हैं? अब जबकि ऐसा बड़ा आश्चर्यकर्म आपके सामने हो चुका है,- आप अब भी विश्वास नहीं करते। मुझे बताइये, बाद में आप उस पर कैसे विश्वास, करेंगे, जब वह अपना कार्य समाप्त कर देगा और आगे ऐसा कोई काम नहीं करेगा, तब? उस समय आपके लिये उसका अनुसरण करना और भी अधिक असंभव होगा। बाद में परमेश्वर आपके दृष्टिकोण पर और देहधारी परमेश्वर के प्रति आपके ज्ञान और अनुभव के आधार पर निर्धारित करेगा कि आप पापी हैं, या धर्मी हैं, और यह भी तय करेगा कि आपको पूर्ण करे या आपको अलग कर दे। अब आपको स्पष्ट रूप से देखना चाहिये। पवित्र आत्मा इसी तरह कार्य करता है: वह आपके आज के व्यवहार के आधार पर आपका परिणाम निर्धारित करता है। आज के वचन कौन बोलता है? आज के काम कौन करता है? कौन तय करता है कि आज आपको दूर किया जायेगा? कौन तय करता है कि आपको पूर्ण किया जायेगा? क्या यह सब काम, मैं स्वयं नहीं करता? मैं ही हूं जो इन वचनों को बोलताहै, मैं ही हूं जो इस काम को सम्पन्न करता है। शाप देना, ताड़ना करना, और लोगों का न्याय करना सभी मेरे कामों का एक हिस्सा हैं। अंत में तुम्हें अलग करना भी मेरा अपना कार्य होगा! सब कुछ मेरा ही काम है! तुम्हें पूर्ण बनाना मेरा ही काम है, और तुम्हें अपनी आशीषों का आनंद देना भी मेरा ही काम है। यह सब मेरा अपना काम है। तुम्हारा परिणाम यहोवा के द्वारा पहले से निर्धारित नहीं था; यह आज के परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह अब तय होगा, यह संसार की सृष्टि किये जाने से पूर्व तय नहीं किया गया था। कुछ बेतुके लोग कहते हैं, संभवतः तुम्हारी आंखों में कुछ खराबी है, और तुम उस तरह से नहीं देखते, जिस तरह से तुम्हें देखना चाहिये। अंत में तुम देखोगे कि पवित्र आत्मा सब बातों को कैसे प्रकट करता है! यीशु ने मूलरूप में यहूदा को अपना शिष्य चुना। लोग सोचते हैं कि यीशु ने उसे चुनकर एक गलती की थी। वह कैसे किसी को शिष्य बना सकता था, जो आगे चलकर उसके साथ विश्वासघात करेगा? पहले यहूदा का यीशु के साथ विश्वासघात का कोई विचार या इरादा नहीं था। यह तो बाद में हुआ। उस समय यीशु ने यहूदा को कृपापूर्वक चुना था। उसने उसे अपना अनुसरण करने दिया, और उसे आर्थिक मामलों की जिम्मेवारी सौंपी। यदि वह जानता कि यहूदा धन में हेराफेरी करेगा, तो उसने उसे धन का उत्तरदायित्व नहीं सौंपा होता। तुम कह सकते हो कि मूलरूप में यीशु नहीं जानता था कि यह व्यक्ति चालाक और धूर्त है, और अपने भाइयों और बहनों के साथ धोखाधड़ी करता था। बाद में जब यहूदा पर कुछ समय नजर रखी गई, यीशु ने देखा कि वह भाइयों और बहनों, और परमेश्वर के साथ धोखा करता है। लोगों ने भी जान लिया कि वह सदैव दान में प्राप्त धन में से खर्च करता था और तब उन्होंने यह बात यीशु को बताई। यीशु को ये सब बातें तब जाकर पता चली। अब जबकि यीशु को क्रूस पर चढ़ने के अपने कार्य को सम्पन्न करना था, इसलिए उसे कोई ऐसा जन चाहिये था जो उसके साथ विश्वासघात करे, और संयोगवश यहूदा इस काम के लिये उपयुक्त था। यीशु ने कहा - तुम में से कोई एक है जो मुझे पकड़वायेगा। मनुष्य का पुत्र इस विश्वासघात के कारण क्रूस पर चढ़ाया जायेगा और तीसरे दिन जी उठेगा। दरअसल उस समय यीशु ने यहूदा को नहीं चुना था कि वह उसके साथ विश्वासघात करे, इसके विपरीत वह चाहता था कि यहूदा एक स्वामिभक्त शिष्य बने, परंतु उसे आश्चर्य हुआ कि यहूदा इतना धन का लालची निकला कि उसने प्रभु को पकड़वा दिया, और प्रभु ने इस स्थिति का उपयोग करके इस काम के लिये यहूदा को चुना। यदि यीशु के सभी बारह चेले स्वामिभक्त या निष्ठावान होते, और उनमें यहूदा के समान कोई भी नहीं होता, तब यीशु को पकड़वाने वाला चेलों में से नहीं, बल्कि बाहर वालों में से कोई होता। जो भी हो, उस समय यह हुआ कि उनमें से एक ऐसा था - यहूदा, जिसे रिश्वत लेने में आनंद आता था। यीशु ने अपने काम को पूरा करने के लिए उस व्यक्ति का उपयोग किया। यह कितना आसान था! यीशु ने अपने काम के आरंभ के दिनों में यह तय नहीं किया था, यह निर्णय तब लिया गया जब घटनाक्रम एक विशेष स्तर पर आ पहुँचा और एक स्थिति निर्मित हो गई। यह यीशु का निर्णय था, विशेषतौर पर यह स्वयं परमेश्वर के आत्मा का निर्णय था। उस समय यीशु ने यहूदा को चुना, जब बाद में यहूदा ने यीशु का विश्वासघात किया, यह पवित्र आत्मा की ओर से था ताकि वह अपने लक्ष्य को पूरा करे। उस समय यह पवित्र आत्मा का काम था। जब यीशु ने यहूदा को चुना, तब उसे पता नहीं था कि वह उसे धोखा देगा। वह केवल इतना जानता था कि वह यहूदा इस्करियोती है। आपके परिणाम का निर्धारण वर्तमान समय में आप के समर्पण के स्तर से होता है, और आपके जीवन की उन्नति के स्तर से होता है, और यह मनुष्यों के बीच प्रचलित इस अवधारणा के आधार पर नहीं होता कि- "यह तो सृष्टि रचे जाने के समय से ही पूर्व निर्धारित था" आपको इन सब बातों को साफतौर पर समझना चाहिये। यह सम्पूर्ण कार्य आपकी कल्पनाओं या अनुमान के आधार पर सम्पन्न नहीं होता। 

 फुटनोट:
1. मूल पाठ में "आशा भी" वाक्यांश नहीं है। 

मूल बी. एस. आई. हिन्दी बाइबल संस्करण से लिया गया। 

“अंतिम दिनों के मसीह के कथन- संकलन” से

सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया - सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन





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