22.8.19

73. मैं फरीसियों के मार्ग पर क्यों चली गई हूँ?

सुज़िंग शांग्ज़ी प्रांत
मैं एक घमण्डी और अकडू व्यक्ति हूँ, और पद मेरी कमज़ोरी रहा है। कई वर्षों से मैं प्रतिष्ठा और पद से बँधी रही हूँ और मैं स्वयं को इससे स्वतन्त्र करने में समर्थ नहीं हुई हूँ। बार-बार मुझे पदोन्नत और स्थानान्तरित किया गया है; मुझे मेरे पद में अनेक असफलताएँ मिली हैं और मार्ग में अनेक धक्के लगे हैं। अनेक वर्षों तक निपटाए जाने और शुद्ध किए जाने के पश्चात्, मुझे महसूस होता था कि मैं अपने पद को गम्भीरता से नहीं ले रही हूँ। मैं उस तरह का नहीं होना चाहती थी जैसा मैं अतीत में थी, और यह सोचती थी कि जब तक मैं एक अगुवा हूँ, तब तक मैं परमेश्वर के द्वारा सिद्ध की जा सकती हूँ, और यह कि यदि मैं एक अगुवा नहीं हूँ, तो मेरे पास कोई आशा नहीं है। मैं समझ गई थी कि जो कर्तव्य मैं पूर्ण कर रही थी, उस पर ध्यान दिए बिना, मुझे मात्र सत्य की खोज करने की आवश्यकता है और मुझे परमेश्वर के द्वारा सिद्ध कर दिया जाएगा; प्रतिष्ठा और पद के पीछे भागना मसीह-विरोधी का मार्ग है। अब मुझे महसूस होता है कि इस पर ध्यान दिए बिना कि मैं क्या कर्तव्य पूर्ण कर रही हूँ, मैं किसी पद का न होना स्वीकार कर सकती हूँ। यह स्वर्ग और पृथ्वी का कानून है कि सृष्टि अपनी भूमिका को पूरा करती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें कहाँ रखा जाता है, तुम्हें परमेश्वर की व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहिए। जब प्रतिष्ठा और पद की भ्रष्टता को उजागर किया जाता है, तो सत्य की खोज के द्वारा इसका हल निकाला जा सकता है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि अपना कर्तव्य पूर्ण करते हुए मेरा सामना किसके साथ होता है, जब तक मैं सत्य को समझती हूँ, मैं कीमत चुकाने की इच्छुक रहूँगी। इस दृष्टिकोण से, मैं सोचती थी कि मैं सत्य की खोज के मार्ग पर पहले चल चुकी हूँ। मैं सोचती थी कि मैंने मानवता और तर्क को पा लिया था। परमेश्वर हृदय को खोजता और मन को जाँचता है। वह जानता था कि सत्य की अपनी खोज में मैं अशुद्ध थी, और यह कि मैं वास्तव में सत्य की खोज के मार्ग पर नहीं चल रही थी। परमेश्वर जानता था कि मुझे शुद्ध करने और मुझे बचाने के लिए कौन सा तरीका उपयोग करना है।
जून 2013 के अन्त में, यहाँ के अगुवा को बदल दिया गया था। उसके पश्चात्, भाइयों और बहनों ने मुझे नया अगुवा होने के लिए चुना। परमेश्वर के परिवार ने मुझे उठने और कार्य करने की अनुमति दी। जब मैंने यह सुना था कि मैं इतना बड़ा उत्तरदायित्व ग्रहण करूँगी, तो मैंने महसूस किया था कि मेरे पास सत्य की वास्तविकता नहीं है और यह कि मैं कार्य करने के योग्य नहीं हूँगी। कार्य-क्षेत्र बहुत बड़ा था और वहाँ अनेक भाई और बहनें थे। मैं उनकी अगुवाई कैसे कर सकती थी? वहाँ अनेक लोग थे जिनके पास मुझ से अधिक आंतरिक गुण थे, जिन्हें बदल दिया गया था। मैं कुछ बेहतर कैसे कर सकती थी? क्या यह मुझे उजागर नहीं कर देगा? मैं उतार-चढ़ाव से गुजरने की इच्छुक नहीं थी। जब तक मैं अपना कर्तव्य पूरा कर सकती थी, तब तक जहाँ कहीं भी कार्य की आवश्यकता होगी, मैं अपना सर्वोत्तम प्रयास करूँगी। परिणामस्वरूप, मैंने वहीं इनकार कर दिया: "नहीं, मैं इस कार्य के लिए सक्षम नहीं हूँ। …" मैंने सभी प्रकार के कारण और बहाने खोज लिए थे। मुझे पूरी तरह से विश्वास था कि ऐसा करने में मैं न्यायसंगत हो रही हूँ और यह कि यही सत्य था। बाद में, अपने भाइयों और बहनों की संगति के द्वारा मैं यह समझने में समर्थ हुई कि मैंने अपने भीतर बड़े लाल अजगर का विष रखा हुआ था; अर्थात्, "तुम जितना ऊपर चढ़ते हो, उतनी ही ज़ोर से गिरते हो" और "तुम जितना ऊपर चढ़ते हो, उतना ही अधिक ठंड बढ़ती जाती है"। मैं विष के द्वारा दोबारा संतप्त नहीं होना चाहती थी। यद्यपि तर्क-वितर्क करने के द्वारा मैं जानती थी कि उन लोगों को हटाए जाने का कारण यह था क्यों कि वे लोग सत्य की खोज की कोशिश नहीं करते थे और उनके स्वभाव अत्यधिक दुष्ट थे और वे हर प्रकार की दुष्टता करते थे; हालाँकि, अपने मन में कहीं मैं यह विश्वास करती थी कि यदि मैं एक बड़ी अगुवा नहीं होती, तो मेरे पास दुष्टता करने के कोई अवसर नहीं होते; यह मेरे अपने लिए एक सुरक्षा थी। फिर में सोचती थी कि मेरा वर्तमान परिवार जा चुका है, मेरे भविष्य की संभावनाएँ जा चुकी हैं और बड़े लाल अजगर के द्वारा मेरा पीछा किया जाता है। यदि मैं एक बड़ी अगुवा बन जाती और अन्त में मैं परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित कर देती और मुझे इसलिए बाहर निकाल दिया जाता क्योंकि मेरे पास सत्य नहीं था, तो मैं वास्तव में जीवित रहने में समर्थ नहीं रहती। क्योंकि मैं इन अवधारणाओं और विषों के द्वारा बँधी हुई थी, इसलिए मैं अन्धकार और संताप में जी रही थी। अपनी पीड़ा में मैं परमेश्वर को पुकारने के लिए बाध्य हुई: "हे परमेश्वर, इस उत्तरदायित्व का सामना करने में, मैं जानती हूँ कि तूने मेरा उत्कर्ष किया है। मैं जानती हूँ कि इस उत्तरदायित्व से इनकार करना परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है और मैं यह करने का साहस नहीं करती हूँ। मैं परमेश्वर का कोप भड़काने से भयभीत हूँ। परन्तु अभी मैं शैतान के विष के द्वारा बँधी हुई जी रही हूँ और इससे बाहर निकलने में असमर्थ हूँ। मैं इस बड़े उत्तरदायित्व को वहन करने से बहुत भयभीत हूँ, मैं भयभीत हूँ कि मेरी प्रकृति ख़तरनाक है, और यह कि मेरे पास सत्य नहीं है और कि एक बड़ी दुष्टता करने के लिए मुझे दण्डित किया जाएगा। हे परमेश्वर, मैं पीड़ा में हूँ और मैं बहुत अधिक घबराई हुई हूँ। मैं नहीं जानती कि उद्धार क्या है और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है। मैं तुझ परमेश्वर से मेरी सहायता करने और मुझे बचाने के लिए प्रार्थना करती हूँ।" मेरी प्रार्थना के दौरान, परमेश्वर ने मुझे इन वचनों से प्रबुद्ध किया "पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें": "और मेरे बारे में तुम्हारा ज्ञान इस प्रकार की गलतफहमियों के कारण ही दूर है; इसके अलावा, परमेश्वर के आत्मा के विरूद्ध में तुम्हारी निंदा और स्वर्ग को तिरस्कृत किया जाना है। इसलिए मैं कहता हूं कि इस प्रकार का विश्वास जैसा तुम्हारा है वह तुम्हें मुझ से दूर करने का ही कारण बनेगा और तुम्हें मेरे और अधिक विरुद्ध करेगा। कार्यों के कई वर्षों के दौरान, तुमने कई सत्यों को देखा है, परन्तु क्या तुम जानते हो कि मेरे कानों ने क्या सुना है? तुम में से कितने लोग सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं? तुम सब विश्वास करते हो कि सत्य के लिए तुम कीमत चुकाने के लिए तैयार हो, परन्तु तुम में से कितनों ने वास्तव में सत्य के लिए दुख उठाया है? तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी होता है वह अधर्म है और इस कारण से तुम विश्वास करते हो कि कोई भी, चाहे जो कोई भी हो, चालाक और कुटिल है।" परमेश्वर के न्याय करने वाले वचन बेध देने वाली गर्जना के समान थे, जो मेरी घबराहट और पीड़ा को भय और कँपकँपाहट में बदल रहे थे। विशेषतः, "परमेश्वर के आत्मा के विरूद्ध में तुम्हारी निंदा," "स्वर्ग को तिरस्कृत किया जाना है," और "तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी होता है वह अधर्म है," ये वचन मेरे हृदय को एक तलवार के समान छेद रहे थे, और मुझे परमेश्वर के स्वभाव की धार्मिकता, प्रताप और कोप की अनुभूति करवा रहे थे। मैंने देखा कि मेरी वर्तमान स्थिति वास्तव में परमेश्वर का विरोध और परमेश्वर की निन्दा कर रही थी और कि यह बहुत ही दुःखद थी! इसकी वजह से मेरा विद्रोही हृदय वापस मुड़ने में समर्थ हुआ था और मैंने परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का प्रयास करने के लिए स्वयं को परमेश्वर के समक्ष दण्डवत किया। मेरे बारे में जो उजागर किया गया था मैंने उसकी जाँच की। मैं नहीं जानती थी कि पिछले कुछ वर्षों में मैंने कितनी बार परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का अनुभव किया था, किन्तु मैं न केवल परमेश्वर को नहीं जानती थी, बल्कि वास्तव में मैंने उसे ग़लत समझा था और उससे अपने आप को बचाकर रखा था, और इसे और बुरा बना लिया था। मैंने हर उस बात के लिए परमेश्वर पर आरोप लगाया जो अन्यायपूर्ण थी मानो कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का कार्य बहुत ही कष्टप्रद था। कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य को अनुभव करने के पश्चात भी परमेश्वर के साथ मेरा सम्बन्ध थोड़ा सा भी घनिष्ठ या नियमित नहीं हुआ था; बल्कि मैं परमेश्वर से और भी अधिक विमुख और दूर हो रही थी। मेरे और परमेश्वर के बीच एक बहुत बड़ी खाई थी जिसे मैं पार नहीं कर सकती थी। क्या यही वह था जो मैंने इतने वर्षों के पश्चात प्राप्त किया था? इस समय मैं यह समझने में समर्थ थी कि मेरा स्वार्थी और खोटा स्वभाव ही मेरे अंतःकरण के साथ विश्वासघात करने के लिए मुझे विवश कर रहा था। मैं परमेश्वर के द्वारा मेरे लिए चुकाई गई कीमत को भूल गई थी; मेरे लिए उसके उद्धार और सुधार को मैं भूल गई थी। इस समय मैंने परमेश्वर से पुनः प्रार्थना की: "हे परमेश्वर, मैं शैतान के विष के अनुसार अब और नहीं जीऊँगी, मैं तेरे हृदय को फिर से चोट नहीं पहुँचाऊँगी। मैं परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करने और अपने गलत दृष्टिकोणों से मुड़ने की इच्छुक हूँ।" परिणामस्वरूप मैंने उपरोक्त में से 15 जून, 2013 को जारी धर्मोपदेश को पढ़ा: "हर व्यक्ति जो परमेश्वर से प्रेम नहीं करता है वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर है और अंततः उसे प्रकट कर दिया जाएगा और उसे हटा दिया जाएगा। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य लोगों को बचाना और सिद्ध करना है और हर दुष्ट व्यक्ति जिसे बचाया नहीं जाता है उसे प्रकट कर दिया जाएगा और हटा दिया जाएगा। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के प्रकार का अनुसरण करेगा। इतने सारे लोग अपने पद और सामर्थ्य के साथ दुष्टता करते हुए उजागर क्यों हो रहे हैं? यह इस वजह से नहीं है कि उनका पद उन्हें आहत करता है। मूलभूत समस्या मनुष्य की प्रकृति का सार है। पद वास्तव में लोगों को प्रकट कर सकता है, किन्तु यदि एक दयालु व्यक्ति के पास ऊँचा पद है, तो वह दुष्टता के विभिन्न कार्य नहीं करेगा। कुछ लोग जिनके पास एक पद नहीं है, वे दुष्टता नहीं करेंगे। सतही रूप से तो वे भले लोगों जैसे दिखाई देते हैं, किन्तु यदि वे पद प्राप्त कर लेते हैं, तो तब वे हर प्रकार की दुष्टता करते हैं" (ऊपर के उपदेश और संगति में "तुम लोगों को परमेश्वर की सिद्धता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करने का अनुभव अवश्य प्राप्त करना चाहिए")। इस संगति के माध्यम से, मैं यह देखने में समर्थ थी कि मेरे हृदय में जो अवधारणाएँ थीं वे कितनी बेहूदा और अतर्कसंगत थीं। हर कोई सत्य की खोज के मार्ग पर चलने में समर्थ है अथवा नहीं यह इस बात पर आधारित नहीं है कि उसके पास एक पद है या नहीं, और ऐसा नहीं है कि एक पद होना सत्य की खोज के मार्ग पर चलना कठिन बना देता है। मुख्य बात यह है कि मनुष्य की प्रकृति सत्य की प्रेमी है या नहीं और मनुष्य परमेश्वर से प्रेम करता है या नहीं। मैं सोचती थी कि मेरे अनेक वर्षों तक "स्वयं को शांत करने" करने के माध्यम से, मैं अपने पद को हल्के में लेती थी और सोचती थी कि मैं घास के समान थी जो एक विशाल वृक्ष बनने की माँग नहीं कर सकता था और यह कि मैं सत्य की खोज करने और अपने कर्तव्य को पूरा करने में ईमानदार होने में समर्थ थी। जब मैं परमेश्वर के परिवार को मेरे बजाय अन्य लोगों को प्रोन्नत करते हुए देखती तो मैं पहले के जैसे पीड़ा, कमजोरी, नकारात्मकता और निराशा महसूस करती हुई नहीं होती थी। इन अभिव्यक्तियों के कारण, मैं विश्वास करती थी कि कुछ अंश तक मेरा स्वभाव रूपान्तरित हो चुका है और कि मैं पहले से ही पतरस के मार्ग पर चल रही थी। आज, तथ्यों और सत्य की रोशनी में, मैं अपने असली रंगों को स्पष्टता से देखने में समर्थ थी: वास्तव में तो मैं अपने पद को नहीं जाने दे रही थी, बल्कि इसके बजाय मैं और अधिक चालाक और धूर्त बन रही थी। इसके साथ अनेक बार निपटने के पश्चात भी मैं अपना हृदय परमेश्वर को नहीं दे रही थी और ईमानदारी से परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश नहीं कर रही थी। बल्कि, मैं अपने-आप को बचा रही थी। मेरे मन में सदैव मेरे भविष्य की योजनाएँ जोर मारती रहती थी। मैंने अपने हृदय में बेतुकी अवधारणा बना रखी थी कि "ऊँचे पद सुरक्षित नहीं होते हैं।" मैं परमेश्वर के लिए प्रेम कैसे दर्शा रही थी और पतरस के मार्ग पर कैसे चल रही थी?
मेरे ग़लत दृष्टिकोणों के बारे में, मैंने सिद्धांत 131, "तुम्हारे कर्तव्यों और पद को सत्यापित करने का सिद्धांत" और साथ ही सिद्धांत 155 "मामलों को सिद्धान्त के साथ सँभालने के लिए सत्य की वास्तविकता जिसमें तुम लोगों को अवश्य प्रवेश करना चाहिए" में "परमेश्वर के लिए व्यय करने का सिद्धांत" को पढ़ा। "तू जानता है कि मैं क्या कर सकता हूँ, और तू आगे यह भी जानता है कि मैं क्या भूमिका निभा सकता हूँ। तेरी इच्छा मेरे लिए आदेश है और मेरे पास जो कुछ भी है वह सब मैं तेरे प्रति समर्पित कर दूँगा। केवल तू ही जानता है कि मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूँ। यद्यपि शैतान ने मुझे बहुत अधिक मूर्ख बनाया और मैंने तेरे विरूद्ध विद्रोह किया, किन्तु मुझे विश्वास है कि तू मुझे उन अपराधों के लिए स्मरण नहीं करेगा, कि तू मेरे साथ उनके आधार पर व्यवहार नहीं करेगा। मैं अपना सम्पूर्ण जीवन तुझे समर्पित करना चाहता हूँ। मैं कुछ नहीं माँगता हूँ, और न ही मेरी अन्य आशाएँ या योजनाएँ हैं; मैं केवल तेरे इरादे के अनुसार कार्य करना चाहता हूँ और तेरी इच्छा को पूरा करना चाहता हूँ। मैं तेरे कड़वे कटोरे में से पीऊँगा और मैं तेरे आदेशों के लिए हूँ।" और साथ ही: "मनुष्य के कर्तव्य और क्या वह धन्य या श्रापित है के बीच कोई सह-सम्बन्ध नहीं है। कर्तव्य वह है जो मनुष्य को पूरा करना चाहिए; यह उसका आवश्यक कर्तव्य है और प्रतिफल, परिस्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह कर्तव्य कर रहा है। ऐसा मनुष्य जिसे धन्य किया जाता है वह न्याय के बाद सिद्ध बनाए जाने पर भलाई का आनन्द लेता है। ऐसा मनुष्य जिसे श्रापित किया जाता है तब दण्ड प्राप्त करता है जब ताड़ना और न्याय के बाद उसका स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, अर्थात्, उसे सिद्ध नहीं बनाया गया है। एक सृजन किए गए प्राणी के रूप में, मनुष्य को, इस बात की परवाह किए बिना कि क्या उसे धन्य या श्रापित किया जाएगा, अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए, वह करना चाहिए जो उसे करना चाहिए, और वह करना चाहिए जो वह करने के योग्य है। यही किसी ऐसे मनुष्य के लिए सबसे आधारभूत शर्त है, जो परमेश्वर की तलाश करता है। तुम्हें केवल धन्य होने के लिए अपने कर्तव्य को नहीं करना चाहिए, और श्रापित होने के भय से अपना कृत्य करने से इनकार नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को एक बात बता दूँ: यदि मनुष्य अपना कार्य करने में समर्थ है, तो इसका अर्थ है कि वह उसे करता है जो उसे करना चाहिए। यदि मनुष्य अपना कर्तव्य करने में असमर्थ है, तो यह मनुष्य की विद्रोहशीलता को दर्शाता है।" परमेश्वर के वचनों से यह देखा जा सकता है कि पतरस ने वास्तव में अपने सम्पूर्ण जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने में समर्थ होने की खोज की और कि उसने हर चीज़ में परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन किया; उसने अपने चुनाव या अपेक्षाएँ नहीं कीं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि परमेश्वर ने चीज़ों को कैसे व्यवस्थित किया, उसने सर्वदा समर्पण किया। अंततः, उसने एक सृजन के रूप में अपना कर्तव्य किया और परमेश्वर को अपना जीवन और उसके लिए अपना चरम प्रेम दिया। पतरस को परमेश्वर में उसके विश्वास में सफलता प्राप्त क्यों हुई इसका कारण यह नहीं था कि उसके पास ऊँचा पद नहीं था। वह एक प्रेरित था और प्रभु यीशु ने उसे कलीसियाओं की चरवाही करने का महान आदेश दिया था। किन्तु वह एक प्रेरित के रूप में अपने पद पर कार्य नहीं कर रहा था, वह अव्यक्त और अज्ञात था, वह एक सृजन के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने, परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करने, और उसके प्रति समर्पण करने में वह परिश्रमी और कर्तव्यनिष्ठ था। अपने कर्तव्य पूरा करने में अपना सर्वोत्तम प्रयास करने के द्वारा उसने परमेश्वर की सन्तुष्टि प्राप्त कर ली थी। यही उसकी सफलता का रहस्य था। पतरस की प्रार्थनाओं और परमेश्वर के वचन के न्याय और ताड़ना के साथ विषमता दिखाने के पश्चात, मैं बहुत ही लज्जित महसूस करती थी। परमेश्वर के वचन ने मेरे हृदय को प्रभावित किया और मुझे यह देखने की अनुमति दी कि मैं अविनम्र और परमेश्वर के विरोध में थी। परमेश्वर में विश्वास करने में, मैं सदैव अपनी आशाओं और योजनाओं को बनाए रखती थी। मैं इन तमाम वर्षों में एक अन्तिम मंजिल की, अपनी भविष्य की संभावनाओं की, प्रतिष्ठा, लाभ और पद की खोज में इधर-उधर भागने में व्यस्त रही थी। जब मैंने अपने मात्र कुछ कर्तव्यों को ही पूरा किया था, तो मैंने परमेश्वर के साथ एक सौदा करने और यह गारंटी देने के लिए कि मुझे बचाया जाएगा इस पर परमेश्वर को उसकी सहमति की मोहर लगाने देने का प्रयत्न किया। परमेश्वर से मेरे लिए यह करवाने की मेरी अपेक्षाएँ प्रकट करती हैं कि मेरे भीतर शैतान का स्वभाव बहुत ही स्वार्थी, दुःखद और दुष्ट था। मेरे पास रत्ती भर भी तर्क और विवेक नहीं था, जो एक सृजित प्राणी के पास होना चाहिए। मुझमें रत्ती भर भी मानवीय स्वभाव नहीं था! अपने कपटी स्वभाव के कारण मैं उस आदेश को अस्वीकार कर देती थी। मैं अपने आप को बचाने के लिए परमेश्वर के आह्वान को अस्वीकार कर देती थी, इसके विपरीत, मैं एक अतर्कसंगत दलील का उपयोग करती थी और बहाने ढूँढती थी। मैं परमेश्वर से तर्कसंगतता के साथ बात करती थी; वास्तव में मैं शैतान की सहापराधी और परमेश्वर के लिए एक शत्रु बल थी। इस समय मैंने परमेश्वर के वचन को पढ़ा, "यदि मनुष्य अपना कार्य करने में समर्थ है, तो इसका अर्थ है कि वह उसे करता है जो उसे करना चाहिए। यदि मनुष्य अपना कर्तव्य करने में असमर्थ है, तो यह मनुष्य की विद्रोहशीलता को दर्शाता है।" मेरा अंतःकरण अपने आप को बहुत दोषी महसूस करता था; मैं बीते समय पर विचार करती थी कि कैसे सब कुछ जो मेरे पास था वह परमेश्वर के द्वारा दिया गया था और मैं जो कुछ भी करने में समर्थ थी, और मैं जो कुछ भी अनुभव करती थी, वह सब कुछ परमेश्वर के द्वारा प्रबंध किया गया था। मेरा तर्क और विवेक पुनः प्राप्त करवाने और एक सृजन के रूप में मेरे कर्तव्य को पूर्ण करने में समर्थ बनाने के लिए मुझ पर बार-बार परमेश्वर का न्याय और ताड़ना आई। इस पर ध्यान दिए बिना कि परमेश्वर मुझ से कैसी अपेक्षा करता है, मुझे स्वयं को अर्पित कर देना और परमेश्वर का प्रेम चुका देना चाहिए था। अन्यथा यह छल होता और मुझे दण्ड दिया जाना चाहिए था! परमेश्वर के वचन के न्याय और ताड़ना ने मेरे ग़लत विचारों को अंततः बदल दिया और मेरे अंतःकरण को जगा दिया। आज, प्रश्न यह नहीं है कि परमेश्वर के आदेश का प्रबन्ध किसी के द्वारा किया गया था या नहीं, बल्कि यह परमेश्वर ही है जो उस मार्ग की जाँच कर रहा था जिस पर मैं इन तमाम वर्षों तक चली थी और जो मैंने इन तमाम वर्षों में प्राप्त करने की कोशिश की थी। आज, मेरे पास सत्य की वास्तविकता नहीं है और कद-काठी में मैं छोटी हूँ। परमेश्वर ने मुझे यह उत्तरदायित्व इसलिए नहीं दिया क्योंकि मैं वर्तमान में सक्षम थी; बल्कि, यह मुझे सत्य के लिए खोज में सुधार लाने और प्रशिक्षण को स्वीकार करने की अनुमति देने के अभिप्राय से है। यह मुझे स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित करने और परमेश्वर को मेरे सम्पूर्ण हृदय, आत्मा, शक्ति और मन से प्रेम करने की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए बाध्य करता है। अतीत में, मैं बेतुकी अवधारणाओं के साथ जी रही थी। मैं विश्वास करती थी कि मैंने अपने कर्तव्यों और पद को निश्चित कर लिया है। इस नज़रिए और पृष्ठभूमि के साथ अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए, मैं अधिक शुद्धिकरण या अधिक दबाव प्राप्त नहीं कर रही थी। हालाँकि, इसने मेरी वर्तमान स्थिति से मेरी आत्मतृप्ति और सन्तोष के माध्यम से मेरे भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट किया। यह मेरे स्वार्थी और शोचनीय दृष्टिकोण को प्रकट करता था: मैं परमेश्वर को सन्तुष्ट करने और परमेश्वर से प्रेम करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किए बिना परमेश्वर में एक विश्वास के साथ अपने कर्तव्यों को पूरा करने का प्रयास कर रही थी। इस समय, मैं स्वयं के पास आने में समर्थ हो गई थी: इन तमाम वर्षों के पश्चात, मैं सोचती थी कि सत्य की खोज करते हुए मैं पहले से ही पतरस के मार्ग पर चल रही थी। किन्तु आज, तथ्य प्रकट करते हैं कि मैं भविष्य की अपनी संभावनाओं को सर्वाधिक मात्रा में महत्व देती थी। मुझमें परमेश्वर के लिए रत्ती भर भी प्रेम नहीं था और मैं भारी ज़िम्मेदारी को वहन करने या परमेश्वर के लिए अपनी पूर्ण अस्मिता अर्पित करने की इच्छुक नहीं थी। यह उसके समान कैसे था जो पतरस खोज रहा था?
अपनी खोज में, मैंने, "परमेश्वर के वचन के 100 अंश, जिन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अवश्य अनुभव करना और अभ्यास में लाना चाहिए" में दो अंशों को पढ़ा: "परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के एक प्राणी के अपने कर्तव्य को निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और अन्य चुनाव किए बिना परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। ऐसे लोग जो परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करते हैं उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ या उस चीज़ की खोज नहीं करनी चाहिए जिसकी वे व्यक्तिगत रूप से अभिलाषा करते हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है।" "यदि जिसकी तू खोज करता है वह सत्य है, तो जो कुछ तू अभ्यास में लाता है वह सत्य है, और जो कुछ तू अर्जित करता है वह तेरे स्वभाव में हुआ परिवर्तन है, तो वह पथ जिस पर तूने कदम रखा है वह सही पथ है। यदि जिसे तू खोजता है वह देह की आशीषें हैं, और जिसे तू अभ्यास में लाता है वह तेरी स्वयं की धारणाओं की सच्चाई है, और यदि तेरे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं है, और तू देह में प्रकट परमेश्वर के प्रति बिलकुल भी आज्ञाकारी नहीं है, और तू अभी भी अस्पष्टता में रह रहा है, तो जिसे तू खोज रहा है वह निश्चय ही तुझे नरक ले जाएगा, क्योंकि वह पथ जिस पर तू चलता है वह असफलता का पथ है। तुझे सिद्ध बनाया जाएगा या निष्कासित किया जाएगा यह तेरे स्वयं के अनुसरण पर निर्भर होता है, जिसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से)। परमेश्वर का वचन ही सत्य, मार्ग, और जीवन है और इस समय मैंने अपनी वास्तविक स्थिति को परमेश्वर के वचन के दो अंशों के साथ पुनः जोड़ा। मैं समझ गई थी कि परमेश्वर के वचन ने पहले से ही पतरस की सफलता के मार्ग और साथ ही सफलता के मार्ग की अभिव्यक्ति को प्रकट कर दिया था। पतरस की सफलता का मार्ग पद की खोज न करने या कर्तव्यों को सोच विचार कर न चुनने की ओर संकेत नहीं करता था। यह मात्र नकारात्मक पहलुओं पर जीत लिए जाने के विषय में नहीं था, यह और अधिक महत्वपूर्ण रूप से सकारात्मक रूप से परमेश्वर से प्रेम करने और एक सृजन के कर्तव्य को पूरा करने की ओर संकेत करता था। इसके अलावा, सही मार्ग पर चलना अनेक सकारात्मक और वास्तविक परिणामों को उत्पन्न करता है, जैसे कि परमेश्वर को और अच्छी तरह से जानना, सत्य की खोज करने और इसे अभ्यास में लाने के द्वारा और अधिक विनम्र बनना, और अपनी स्वयं की अपेक्षाओं, आशाओं और अशुद्धताओं को अब और नहीं रखना; तुम्हारा स्वभाव रूपान्तरित हो जाएगा, और सबसे महत्वपूर्ण ढंग से, लोग और बेहतर ढंग से सत्य में प्रवेश करेंगे और परमेश्वर के लिए बढ़ता हुआ वास्तविक प्रेम रखेंगे ताकि वे किसी भी अन्य विनती के बिना स्वयं को पूरी तरह से समर्पित करेंगे और अपने सम्पूर्ण जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने में कर्मठ रहेंगे। मैं सोचती थी कि मैं सही मार्ग पर चल रही हूँ और यह कि सत्य की कुछ वास्तविकता में पहले ही प्रवेश कर चुकी हूँ। किन्तु प्रकट किए गए तथ्यों में, सत्य को प्राप्त करने और अपने स्वभाव को रूपान्तरित करने में मेरी अभिव्यक्ति कहाँ थी? परमेश्वर से सच में प्रेम करने की मेरी अभिव्यक्ति कहाँ थी? यदि मैं वास्तव में प्रवेश कर चुकी होती, तो मैं इसकी जाँच करने में सक्षम होती। इस पर ध्यान दिए बिना कि परमेश्वर क्या व्यवस्थाएँ करता है, मैं समर्पण करने में समर्थ होती। यदि मैं वास्तव में प्रवेश कर चुकी होती, तो मैं अपने में शैतान के स्वभाव के सार की वास्तविक प्रकृति को देखने में समर्थ होती और वास्तव में परमेश्वर के उद्धार को देखती। मैं स्वयं को परमेश्वर के प्रति अर्पित करने और उसके प्रेम को उसे लौटाने की और अधिक इच्छुक होती। इन तथ्यों और परमेश्वर के वचन और ताड़ना के साथ, मैं यह देखने में समर्थ थी, कि मैं गलत मार्ग पर चल रही थी। एक सृजन के रूप में मैं अपने कर्तव्यों को पूरा करने के मार्ग पर नहीं चल रही थी और न ही परमेश्वर से प्रेम करने का प्रयास कर रही थी। बल्कि, मैं अपने स्वयं के हितों और व्यक्तिगत आशाओं को खोजने के मार्ग पर थी; यह अनुसरण करने के लिए बाध्य किए जाने एक सीमित कीमत चुकाने के द्वारा परमेश्वर को धोखा देने का मार्ग था ताकि मैं स्वयं को बचा लूँ और विश्वास दिलाऊँ कि मेरे पास अपनी अन्तिम मंजिल होगी। मैं सदैव देह के सुखों के पीछे भागी हूँ। अस्थाई आराम को पाने के लिए, मैं परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने और सत्य को प्राप्त करने की इच्छुक नहीं थी; मैं परमेश्वर को प्रेम करने, परमेश्वर के प्रति सब कुछ अर्पित करने, या परमेश्वर के लिए उसके न्याय और ताड़ना और परीक्षणों और शुद्धिकरण के माध्यम से सब कुछ व्यय करने का प्रयास करने की इच्छुक नहीं थी। मेरे हृदय की गहराई में मेरा दृष्टिकोण था कि: बस शांतिपूर्वक कर्तव्यों को पूरा करने का प्रयास करते रहो, परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित मत करो। अन्त में मैं अच्छी मंजिल प्राप्त करूँगी और उतना पर्याप्त होगा। परमेश्वर के वचन ने बारम्बार दिखाया है कि पौलुस की असफलता का बुनियादी कारण परमेश्वर के साथ उसके व्यवहार में निहित था। उसने अपने भविष्य के प्रतिफल और मुकुट के लिए कार्य किया था और उसमें सृष्टि के प्रभु के लिए रत्ती भर भी अधीनता और प्रेम नहीं था। अंततः इसका परिणाम उसकी असफलता और परमेश्वर का दण्ड प्राप्त करना हुआ। परमेश्वर का वचन स्पष्ट रूप से हमें चेतावनी देता है: "… तो जो अपने गंतव्य के लिये कार्य कर रहे हैं, उनकी अंतत: पराजय होगी, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास की विफलता का कारण धोखा है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "गंतव्य पर" से)। इस प्रकार का निवेश ईमानदारी में किया गया नहीं होता है; इसमें एक झूठा दिखावा और धोखा होता है। मैंने वास्तव में अपनी गर्दन को अकड़ा रखा था और अपने ही मार्ग पर चलने के द्वारा परमेश्वर के वचनों के न्याय से दूर रहती थी। अपनी प्रकृति के हावी होने के द्वारा, मैं सदैव उन लोगों के पीछे चल रही थी जो असफल हो चुके थे। जब परमेश्वर के उद्धार का कार्य मुझ पर आया, तो मैं भला बुरा बताने में अयोग्य थी और उसी हाथ को दाँत से काट रही थी जो मुझे भोजन खिलाता है। मैं परमेश्वर को ग़लतफ़हमियों, विरोध और विश्वासघात के अलावा और कुछ नहीं दे रही थी। इस समय, मैं स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ थी कि मेरी प्रकृति कितनी स्वार्थी, निन्दनीय और कपटी है। मैं इन तमाम वर्षों में परमेश्वर पर विश्वास करती थी और परमेश्वर में आनन्दित रहती थी फिर भी परमेश्वर के विरुद्ध षड्यंत्र करती थी, और परमेश्वर के साथ व्यापार करने की निरन्तर प्रतीक्षा करती रहती थी। मेरे हृदय में परमेश्वर के लिए रत्ती भर भी प्रेम नहीं था। निश्चित रूप से यही वह कारण था कि क्यों मैं गलत मार्ग पर चल रही थी और परमेश्वर निश्चित रूप से इसी के बारे में बात कर रहा था: "क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के प्रति स्वयं को पूरी रीति से समर्पित करने में अच्छा नहीं है; क्योंकि मनुष्य सृष्टिकर्ता के प्रति अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि मनुष्य ने सत्य को देखा तो है किन्तु उसे टालता है और अपने स्वयं के पथ पर चलता है, क्योंकि मनुष्य हमेशा उन लोगों के पथ का अनुसरण करके कोशिश करता है जो असफल हो चुके हैं, क्योंकि मनुष्य हमेशा स्वर्ग की अवहेलना करता है, इस प्रकार, मनुष्य हमेशा असफल हो जाता है, उसे हमेशा शैतान के छल द्वारा ठग लिया जाता है, और स्वयं के जाल में फंस जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से)।
उसके पश्चात, मैंने ऊपर से उपदेश को पढ़ा, जिसने कहा: "ऐसे लोग हैं जो अपरिहार्य रूप से ऐसी आशंकाएँ रखते हैं: 'मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूँ, किन्तु मैं मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से डरता हूँ; मैं कुछ गलत करने और परमेश्वर का विरोध करने से डरता हूँ।' क्या इस प्रकार की आशंकाओं वाले अनेक लोग हैं? विशेष रूप से वे लोग जो कार्यकर्ताओं और अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं, वे अमुक-अमुक व्यक्ति को देख लेते हैं जिसने अतीत में बहुत परिश्रम से खोज की, जिसके पास सौगात है, जिसके पास अच्छा मन है, और फिर उसका पतन हो गया। ऐसा अमुक-अमुक व्यक्ति उपदेश देने में बहुत अच्छा होता था, किन्तु अन्त में, वे आशा नहीं करते थे कि उसका भी पतन हो जाएगा। वे कहते हैं: 'यदि मैं उन चीज़ों को करता हूँ, तो क्या मेरा अन्त भी उनके जैसा होगा और पतन भी हो जाएगा?' यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर से प्रेम करता है, तो क्या तुम अभी भी इन बातों से भयभीत होहे? यदि तुममें परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम है, तो क्या तुम तब भी आशंकाओं के द्वारा नियन्त्रित होगे? जो लोग परमेश्वर से प्रेम करते हैं वे सदैव परमेश्वर की इच्छा के बारे में विचारशील होते हैं और वे गलत चीज़ों को नहीं करेंगे। … यदि तुम वास्तव में भेद कर सकते हो कि मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना क्या है, और सत्य की खोज और सिद्ध किए जाने का मार्ग क्या है, तो तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से डर क्यों रहे हो? क्या तुम्हारा इस पर चलने का डर यह प्रमाणित नहीं करता है कि तुम अभी भी इस पर चलना चाहते हो और कि तुम ग़लती के इस मार्ग का परित्याग करने के इच्छुक नहीं हो? क्या यही समस्या नहीं है?" (जीवन प्रवेश के बारे में संगति और उपदेश IX में "परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर की गवाही देने की खोज कैसे करें")। ऊपर से संगति के खुलासे के माध्यम से मैं और अधिक स्पष्टता से देखने में समर्थ थी कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम नहीं करते हैं वे मसीह-विरोधी मार्ग पर हैं; कि लोग परमेश्वर से प्रेम नहीं करते हैं यही असफलता का स्रोत है; मैं उन कारणों और बहानों को भी और अधिक स्पष्टता से देखती थी जो शैतान द्वारा मेरे भीतर छिपाए गए थे; मैं शैतान की चालाकियों की वास्तविक प्रकृति को समझने में समर्थ थी। कि मैं बड़े उत्तरदायित्वों को स्वीकार करने की इच्छुक नहीं थी और मैं असफलता के मार्ग पर चलने से डरती थी इससे प्रकट होता था कि मेरी प्रकृति स्वार्थी, खोटी और दुष्ट थी। इसे प्रकट होता था कि मैं अपने आप से और शैतान से बहुत अधिक प्रेम करती हूँ और कि मैं मसीह-विरोधी मार्ग से घृणा नहीं करती थी, जो पद और प्रतिष्ठा और साथ ही अपेक्षा और भविष्य की मंजिल की खोज कर रही थी। मैं सत्य को सँजो कर नहीं रखती थी या परमेश्वर के लिए रत्ती भर भी प्रेम नहीं करती थी। मैं वास्तव में यह भी समझने में समर्थ थी कि लोगों के बारे में जो ऊपर कहा गया था जो अनेक वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते थे किन्तु उनमें अभी भी परमेश्वर के लिए प्रेम नहीं है, उनमें मानवीय प्रकृति नहीं है; तुम कह सकते थे कि उन सभी में दुष्ट स्वभाव थे; वे सभी स्वार्थी, निंदनीय और दुष्ट लोग थे। अतः मुझे मेरे अपनी स्वयं की प्रकृति के सार की सच्ची जानकारी थी। उसके साथ-साथ यह मुझे मेरे गलत दृष्टिकोणों से मुड़ने और मुक्त होने और अभ्यास की सही दिशा और मार्ग प्राप्त करने का कारण भी बनी जिसकी वजह से मैं स्वार्थी और दुःखद ढ़ंग से अब और नहीं रहती थी; सब कुछ परमेश्वर के द्वारा व्यवस्थित किया जाता है और मुझे अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए बस सच में सत्य की खोज करने और परमेश्वर के लिए प्रेम का अभ्यास करने की आवश्यकता है।
परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के लिए उसकी स्तुति करो जिसने मेरी खोज के उद्देश्य को पलट दिया और मुझे ग़लती के मार्ग से वापिस ले आया। इसने मुझे शैतान की प्रकृति के सार को समझने, जो कि मुझ में था, और मेरी असफलता के स्रोत को ढूँढने की भी वास्तव में मुझे अनुमति दी। मैं इन तमाम वर्षों में परमेश्वर पर विश्वास करती थी और परमेश्वर से कभी भी प्रेम नहीं करती थी। मैं लज्जित और आत्म-दोष महसूस करती थी। मैंने वास्तव में परमेश्वर को उदास होने दिया और परमेश्वर को बहुत अधिक आहत किया। मेरा हृदय परमेश्वर से वास्तविक प्रेम विकसित करने की लालसा करता है। पतरस को सिद्ध बनाया गया था क्योंकि वह वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता था और क्योंकि उसमें सत्य की खोज करने की इच्छा और दृढ़ता थी। यद्यपि मैं उससे दूर हूँ, फिर भी मैं स्वयं को बचाए रखने के लिए इतने अधम और घृणास्पद ढंग से अब और नहीं जीऊँगी; मैं खोज करने में परमेश्वर को प्रेम करना अपना उद्देश्य बनाने की इच्छुक हूँ, और मैं अपने कर्तव्यों को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ूँगी और कीमत चुकाऊँगी। मैं सच में अपने उत्तरदायित्वों का बोझ वहन करूँगी और अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए सत्य को अभ्यास में लाऊँगी और परमेश्वर से प्रेम करने की वास्तविकता में प्रवेश करूँगी।
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-मसीह के न्याय के अनुभव की गवाहियाँ

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