ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि परमेश्वर अपरिवर्तशील है। यह सही है, किन्तु यह परमेश्वर के स्वभाव और सार की अपरिवर्तनशीलता का संकेत करता है। उसके नाम और कार्य में परिवर्तन से यह साबित नहीं होता है कि उसका सार बदल गया है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और यह कभी नहीं बदलेगा। यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर का कार्य हमेशा वैसा ही बना रहता है, तो क्या वह अपनी छः-हजार वर्षीय प्रबंधन योजना को पूरा करने में सक्षम होगा? तुम केवल यह जानते हो कि परमेश्वर हमेशा ही अपरिवर्तनीय है, किन्तु क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है? यदि परमेश्वर का कार्य कभी नहीं बदला था, तो क्या वह मानवजाति को आज के दिन तक ला सकता था? यदि परमेश्वर अपरिवर्तशील है, तो ऐसा क्यों है कि उसने पहले ही दो युगों का कार्य कर लिया है? उसका कार्य हमेशा आगे की ओर प्रगति कर रहा है, और इसलिए उसका स्वभाव धीरे-धीरे मनुष्य के लिए प्रकट होता है, और जो प्रकट होता है वह उसका अंतर्निहित स्वभाव है। आरंभ में, परमेश्वर का स्वभाव मनुष्यों से छिपा हुआ था, उसने कभी भी खुल कर मनुष्य को अपना स्वभाव प्रकट नहीं किया था, और मनुष्य को उसका कोई ज्ञान नहीं था, इसलिए उसने धीरे-धीरे मनुष्य के लिए अपना स्वभाव प्रकट करने हेतु अपने कार्य का उपयोग किया, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक युग में उसका स्वभाव बदल जाता है। ऐसा मामला नहीं है कि परमेश्वर का स्वभाव लगातार बदल रहा है क्योंकि उसकी इच्छा हमेशा बदल रही है। बल्कि, क्योंकि उसके कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं, उसका अंतर्निहित स्वभाव धीरे-धीरे अपनी समग्रता से मनुष्य के लिए प्रकट होता है, ताकि मनुष्य उसे जानने में सक्षम हो जाए। किन्तु यह किसी भी भाँति इस बात का साक्ष्य नहीं है कि परमेश्वर का मूलतः कोई विशेष स्वभाव नहीं है और युगों के गुजरने के साथ उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल गया है—इस प्रकार की समझ गलत है। युगों के गुजरने के अनुसार परमेश्वर मनुष्य को अपना अंतर्निहित, विशेष स्वभाव—वह जो है—प्रकट करता है। एक ही युग का कार्य परमेश्वर के समग्र स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकता है। और इसलिए, "परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है" वचन उसके कार्य के संदर्भ में हैं, और "परमेश्वर अपरिवर्तशील है" वचन उस संदर्भ में हैं जो परमेश्वर का अंतर्निहित स्वरूप है। इसके बावज़ूद, तुम एक बिंदु में छह-हज़ार-वर्ष के कार्य को परिभाषित नहीं कर सकते हो, या इसे केवल अपरिवर्ती वचनों से चित्रित नहीं कर सकते हो। मनुष्य की मूर्खता ऐसी ही है। परमेश्वर इतना सरल नहीं है जितना मनुष्य कल्पना करता है, और उसका कार्य एक युग में नहीं रुक सकता है। उदाहरण के लिए, यहोवा हमेशा परमेश्वर के नाम का नहीं हो सकता है; परमेश्वर यीशु के नाम के तहत भी अपना कार्य कर सकता है, जो कि इस बात का प्रतीक है कि कैसे परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे की ओर आगे बढ़ रहा है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
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From :सर्वशक्तिमानपरमेश्वर की कलीसिया
-अंत
के दिनों के मसीह के लिए गवाहियाँ
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