25.9.18

II. मानव जाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के बारे में सच्चाई के पहलू पर हर किसी को अवश्य गवाही देनी चाहिए

2. परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में से प्रत्येक के उद्देश्य और महत्व को जानना।(7)

(2) अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य और महत्व
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"परमेश्‍वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिये नहीं भेजा कि जगत पर दण्ड की आज्ञा दे, परन्तु इसलिये कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए" (युहन्ना 3:17)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
यीशु अनुग्रह के युग के समस्त कार्य का प्रतिनिधित्व करता है; वह देह में देहधारी हुआ और उसे सलीब पर चढ़ाया गया, और उसने भी अनुग्रह के युग का उद्घाटन किया। छुटकारे के कार्य को पूरा करने, व्यवस्था के युग का अंत करने और अनुग्रह के युग का आरम्भ करने के लिए उसे सलीब पर चढ़ाया गया था, और इसलिए उसे "सर्वोच्च सेनापति," "पाप बलि," और "छुटकारा दिलाने वाला" कहा गया।इस प्रकार यीशु के कार्य की विषय सूची यहोवा के कार्य से अलग थी, यद्यपि वे सैद्धान्तिक रूप से एकही थे। यहोवा ने व्यवस्था का युग आरम्भ किया, गृह आधार स्थापित किया, अर्थात्, पृथ्वी पर अपने कार्य का उद्गम स्थल, और आज्ञाओं को जारी किया; ये उसकी उपलब्धियों में से दो थीं, जो व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। जिस कार्य को यीशु ने अनुग्रह के युग में किया वह आज्ञाओं को जारी करना नहीं था बल्कि आज्ञाओं को पूरा करना था, परिणामस्वरूप अनुग्रह के युग का सूत्रपात करना और व्यवस्था के युग को समाप्त करना था जो दो हज़ार सालों तक रहा था। वह अग्रणी था, जो अनुग्रह के युग को शुरू करने के लिए आया, उसके कार्य का मुख्य भाग छुटकारे में रहता है। और इसलिए उसकी उपलब्धियाँ भी दोगुनी थीं: एक नए युग का मार्ग प्रशस्त करना, और अपने सलीब पर चढ़ने के माध्यम से छुटकारे के कार्य को पूरा करना। तब वह चला गया। उस स्तर पर, व्यवस्था का युग समाप्त हो गया और मानवजाति ने अनुग्रह के युग में प्रवेश किया।
जो कार्य यीशु ने किया वह उस युग में मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार था। उसका कार्य मानवजाति को छुटकारा दिलाना, उन्हें उनके पापों के लिए क्षमा करना था, और इसलिए उसका स्वभाव पूरी तरह से विनम्रता, धैर्य, प्रेम, धर्मपरायणता, सहनशीलता, दया और करूणामय-प्यार था। उसने मानवजाति को प्रचुरता से धन्य किया और वह उनके लिए ढेर सारा अनुग्रह लाया, और वे सभी चीज़ें जिनका वे संभवतः आनन्द ले सकते थे, उसने उन्हें उनके आनंद के लिए दी: शांति और प्रसन्नता, अपनी सहनशीलता और प्रेम, अपनी दया और अपना करूणामय-प्यार। उन दिनों, वह सब जिससे मनुष्य का सामना होता था वह थीं उसके आनन्द की ढेर सारी चीज़ें: उनके हृदय शांत और आश्वस्त थे, उनकी आत्माओं को सान्त्वना थी, और उन्हें उद्धारकर्ता यीशु द्वारा जीवित रखा गया था। यह कि वे इन चीज़ों को प्राप्त कर सके यह उस युग का एक परिणाम था जिसमें वे रहते थे। अनुग्रह के युग में, मनुष्य पहले से ही शैतान की भ्रष्टता से गुज़र चुका था, और इसलिए समस्त मानवजाति को छुटकारा देने के कार्य हेतु, अनुग्रह की भरमार, अनन्त सहनशीलता और धैर्य, और उससे भी बढ़कर, मानवजाति के पापों का प्रयाश्चित करने के लिए पर्याप्त बलिदान की आवश्यकता थी ताकि इसके प्रभाव तक पहुँचा जा सके। अनुग्रह के युग में मानवजाति ने जो देखा वह मानवजाति के पापों के प्रायश्चित के लिए मेरी भेंट मात्र था, अर्थात्, यीशु। वे केवल इतना ही जानते थे कि परमेश्वर दयावान और सहनशील हो सकता है, और उन्होंने केवल यीशु की दया और करूणामय-प्रेम को देखा था। ऐसा पूरी तरह से इसलिए था क्योंकि वे अनुग्रह के युग में रहते थे। और इसलिए, इससे पहले कि उन्हें छुटकारा दिया जा सके, उन्हें कई प्रकार के अनुग्रह का आनन्द उठाना था जो यीशु ने उन्हें प्रदान किए थे; केवल यही उनके लिए लाभदायक था। इस तरह, उनके द्वारा अनुग्रह का आनन्द उठाने के माध्यम से उन्हें उनके पापों से क्षमा किया जा सकता था, और यीशु की सहनशीलता और धीरज का आनन्द उठाने के माध्यम से उनके पास छुटकारा पाने का एक अवसर भी हो सकता था। केवल यीशु की सहनशीलता और धैर्य के माध्यम से ही उन्होंने क्षमा पाने का अधिकार प्राप्त किया और यीशु के द्वारा दिए गए अनुग्रह की भरमार का आनन्द उठाया—वैसे ही जैसे कि यीशु ने कहा था, "मैं धार्मिकों को नहीं बल्कि पापियों को छुटकारा दिलाने, पापियों को उनके पापों से क्षमा किए जाने की अनुमति देने आया हूँ।" यदि यीशु मनुष्य के अपराधों के न्याय, अभिशाप, और असहिष्णुता के स्वभाव के साथ देहधारी होता, तो मनुष्य के पास छुटकारा पाने का अवसर कभी नहीं होता, और वह हमेशा के लिए पापी रह गया होता। यदि ऐसा हुआ होता, तो छः-हज़ार-सालों की प्रबन्धन योजना व्यवस्था के युग में रुक गई होती, और व्यवस्था का युग छः-हज़ार-साल बढ़ गया होता। मनुष्य के पापों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई होती और पाप बहुत दारुण हो गए होते, और मानवजाति के सृजन का कोई अर्थ नहीं रह गया होता। मनुष्य केवल व्यवस्था के अधीन ही यहोवा की सेवा करने में समर्थ हो पाता, परन्तु उसके पाप सबसे पहले सृजन किए गए मनुष्यों से बढ़कर हो गए होते। जितना ज़्यादा प्रेम यीशु ने मानवजाति को उसके पापों को क्षमा करते हुए और उन पर पर्याप्त दया और करूणामय-प्रेम लाते हुए किया, उतना ही ज़्यादा मानवजाति ने बचाए जाने, खोई हुई भेड़ कहलाने, की क्षमता प्राप्त की जिन्हें यीशु ने बड़ी कीमत देकर वापिस खरीदा था। शैतान इस काम में गड़बड़ी नहीं डाल सकता था, क्योंकि यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ इस तरह से व्यवहार किया था जैसे एक करूणामयी माता अपने नवजात को अपने आलिंगन में लेकर करती है। वह उन पर क्रोधित नहीं हुआ या उनका तिरस्कार नहीं किया, बल्कि सांत्वना से भरा हुआ था; वह उनके बीच कभी भी अचानक बहुत क्रोधित नहीं हुआ; बल्कि उनके पापों के साथ धैर्य रखा और उनकी मूर्खता और अज्ञानता के प्रति आँखें मूँद ली, यह कह कर कि, "दूसरों को सत्तर गुना सात बार क्षमा करो।" इसलिए उसके हृदय ने दूसरों के हृदयों को रूपांतरित कर दिया। यह इसी तरह से था कि लोगों ने उसकी सहनशीलता के माध्यम से अपने पापों से क्षमा प्राप्त की।

"वचन देह में प्रकट होता है" से "छुटकारे के युग में कार्य के पीछे की सच्ची कहानी" से

Source From:सुसमाचार से सम्बन्धित सत्य,अंतिम दिनों के मसीह के लिए गवाहियाँ  

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