7.1.18

जो आज परमेश्वर के कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं

परमेश्वर की गवाही देने के लिए और बड़े लाल अजगर को शर्मिन्दा करने के लिए तुम्हारे पास एक सिद्धांत, एक शर्त होनी चाहिए: अपने दिल में तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करना चाहिए। यदि तू परमेश्वर के वचनों में प्रवेश नहीं करेगा तो तेरे पास शैतान को शर्मिन्दा करने का कोई तरीका नहीं होगा। अपने जीवन के विकास द्वारा, तुम बड़े लाल अजगर को त्यागते हो और उसका अत्यधिक तिरस्कार करते हो, और केवल तभी बड़ा लाल अजगर पूरी तरह से शर्मिन्दा होगा। जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक होगे, उतना ही अधिक परमेश्वर के प्रति तुम्हारे प्रेम का सबूत होगा और उस बड़े लाल अजगर के लिए घृणा होगी; जितना अधिक तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करोगे, उतना ही अधिक सत्य के प्रति तुम्हारी अभिलाषा का सबूत होगा। जो लोग परमेश्वर के वचन की लालसा नहीं करते हैं वे बिना जीवन के होते हैं। ऐसे लोग वे हैं जो परमेश्वर के वचनों से बाहर ही रहते हैं और जो सिर्फ धर्म से संबंधित होते हैं। जो लोग सचमुच परमेश्वर पर विश्वास करते हैं उन्हें परमेश्वर के वचनों की और भी अधिक गहरी समझ होती है क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं। यदि तुम परमेश्वर के वचनों की अभिलाषा नहीं करते हो तो तुम वास्तव में उसके वचन को खा और पी नहीं सकते हो और यदि तुम्हें परमेश्वर के वचनों का ज्ञान नहीं है, तो तुम किसी भी प्रकार से परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते या उसे संतुष्ट नहीं कर सकते।
परमेश्वर पर अपने विश्वास में, तुम्हें परमेश्वर को कैसे जानना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर को उसके आज के वचनों और कार्य के आधार पर जानना चाहिए, बिना किसी भटकाव या भ्रान्ति के, और अन्य सभी चीजों से पहले तुम्हें परमेश्वर के कार्य को जानना चाहिए। यही परमेश्वर को जानने का आधार है। वे सभी विभिन्न भ्रांतियां जिनमें परमेश्वर के वचनों की शुद्ध स्वीकृति नहीं है, वे धार्मिक अवधारणाएं हैं, वे ऐसी स्वीकृति हैं जो पथभ्रष्ट और गलत हैं। धार्मिक अगुवाओं की सबसे बड़ी कुशलता यह है कि वे अतीत में स्वीकृत परमेश्वर के वचनों को लेकर आते हैं और परमेश्वर के आज के वचनों के विरुद्ध उनकी जांच करते हैं। यदि आज के समय में परमेश्वर की सेवा करते समय, तुम पवित्र आत्मा द्वारा अतीत में कही गई प्रबुद्ध बातों को पकड़े रहते हो, तो तुम्हारी सेवा रुकावट उत्पन्न करेगी और तुम्हारे अभ्यास पुराने हो जाएँगे और धार्मिक अनुष्ठान से कुछ अधिक नहीं होंगे। यदि तुम यह विश्‍वास करते हो जो परमेश्‍वर की सेवा करते हैं उन्‍हें बाह्य रूप में विनम्र और धैर्यवान होना चाहिए..., और यदि तुम आज इस प्रकार की जानकारी को अभ्यास में लाते हो तो ऐसा ज्ञान धार्मिक अवधारणा है, और इस प्रकार का अभ्यास एक पाखण्डी कार्य बन गया है। "धार्मिक अवधारणाएं" उन बातों को दर्शाती हैं जो अप्रचलित और पुराने ढंग की हैं (परमेश्वर के द्वारा पहले कहे गए वचनों और पवित्र आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर प्रकट किए गए प्रकाश की स्वीकृति समेत), और यदि वे आज अभ्यास में लाए जाते हैं, तो वे परमेश्वर के कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं, और मनुष्य को कोई भी लाभ नहीं देते हैं। यदि मनुष्य अपने भीतर की उन बातों को शुद्ध नहीं कर पाता है जो धार्मिक अवधारणाओं से आती हैं, तो वे बातें मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की सेवकाई में बहुत बड़ी बाधा बन जाएँगी। धार्मिक अवधारणाओं वाले लोग पवित्र आत्मा के कार्यों के साथ किसी भी प्रकार से कदम से कदम नहीं मिला सकते हैं, वे एक कदम, फिर दो कदम पीछे हो जाएंगे—क्योंकि ये धार्मिक अवधारणाएं मनुष्य को असाधारण रूप से आत्मतुष्ट और घमण्डी बना देती हैं। परमेश्वर अतीत में कही गई बातों और किए गए कार्यों की कोई ललक महसूस नहीं करता है, यदि कुछ अप्रचलित हो गया है, तो वह उसे समाप्त कर देता है। निश्चय ही तुम अपनी अवधारणाओं को त्यागने में सक्षम हो? यदि तुम परमेश्वर के पूर्व में कहे गए वचनों पर बने रहते हो, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि तुम परमेश्वर के कार्य को जानते हो? यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रकाश को आज स्वीकार करने में असमर्थ हो, और उसके बजाय अतीत के प्रकाश से चिपके रहते हो, तो क्या इससे यह सिद्ध हो सकता है कि तुम परमेश्वर के नक्शेकदम पर चलते हो? क्या तुम अभी भी धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ पाने में असमर्थ हो? यदि ऐसा है, तो तुम परमेश्वर का विरोध करने वाले बन जाओगे।
यदि मनुष्य धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ दे, तो वह आज परमेश्वर के वचनों और उसके कार्य को मापने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करेगा, और उसके बजाय सीधे तौर पर उनका पालन करेगा। भले ही परमेश्वर का आज का कार्य साफ़ तौर पर अतीत के कार्य से अलग है, तुम अतीत के विचारों का त्याग कर पाते हो और आज सीधे तौर पर परमेश्वर के वचनों का पालन कर पाते हो। यदि तुम इस प्रकार के ज्ञान के योग्य हो कि तुम आज परमेश्वर के कार्य को सबसे मुख्य स्थान देते हो, भले ही उसने अतीत में किसी भी तरह से कार्य किया हो, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे जो अपनी अवधारणों को छोड़ चुका है, जो परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, और जो परमेश्वर के कार्य और वचनों का पालन करने में सक्षम है और परमेश्वर के पदचिह्नों का अनुसरण करता है। इस तरह, तुम ऐसे व्यक्ति होगे जो सचमुच परमेश्वर का आज्ञापालन करता है। तुम परमेश्वर के कार्य का विश्लेषण या अध्ययन नहीं करते हो; यह कुछ ऐसा है कि मानो परमेश्वर अपने अतीत के कार्य को भूल गया है और तुम भी उसे भूल गए हो। वर्तमान ही वर्तमान है, और अतीत, बीता हुआ कल हो गया है, और चूँकि परमेश्वर ने जो कुछ अतीत में किया था, आज उसे अलग कर दिया है, इसलिए तुम्हें भी उसमें टिके नहीं रहना चाहिए। केवल तभी तुम वैसे व्यक्ति बन पाओगे जो परमेश्वर का पूरी तरह से आज्ञापालन करता है और जिसने अपनी धार्मिक अवधारणाओं को पूरी तरह से त्याग दिया है।
क्योंकि परमेश्वर के कार्य में हमेशा नई-नई प्रगति होती है, इसलिए यहां पर नया कार्य है, और इसलिए अप्रचलित और पुराना कार्य भी है। यह पुराना और नया कार्य परस्पर विरोधी नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक है; प्रत्येक कदम पिछले कदम के बाद आता है। क्योंकि नया कार्य हो रहा है, इसलिए पुरानी चीजें निस्संदेह समाप्त कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मनुष्य की लम्बे समय से चली आ रही कुछ प्रथाओं और पारंपरिक कहावतों ने, मनुष्य के कई सालों के अनुभवों और शिक्षाओं के साथ मिलकर, मनुष्य के दिमाग में सभी प्रकार की अवधारणाएं बना दी हैं। फिर भी मनुष्यों के द्वारा इस प्रकार की अवधारणाएं बनाने की और भी अधिक अनुकूल बात यह है कि परमेश्वर ने अभी तक अपना वास्तविक चेहरा और निहित स्वभाव मनुष्य के सामने पूरी तरह से प्रकट नहीं किया है, और साथ ही प्राचीन समय के पारंपरिक सिद्धांतों का बहुत सालों से विस्तार हुआ है। इस प्रकार यह कहना सही होगा कि परमेश्वर में मनुष्यों के विश्वास में, विभिन्न अवधारणाओं का प्रभाव रहा है जिसके कारण मनुष्य के ज्ञान में निरंतर उत्पत्ति और विकास हुआ है जिसमें उसके पास परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की धारणाएं हैं—इस परिणाम के साथ कि परमेश्वर की सेवा करने वाले कई धार्मिक लोग उसके शत्रु बन बैठे हैं। इसलिए, लोगों की धार्मिक अवधारणाएं जितनी अधिक मजबूत होती हैं, वे परमेश्वर का विरोध उतना ही अधिक करते हैं, और वे परमेश्वर के उतने ही अधिक दुश्मन बन जाते हैं। परमेश्वर का कार्य हमेशा नया होता है और कभी भी पुराना नहीं होता है, और वह कभी भी सिद्धांत नहीं बनता, इसके बजाय, निरंतर बदलता रहता है और कमोवेश परिवर्तित होता रहता है। यह कार्य स्वयं परमेश्वर के निहित स्वभाव की अभिव्यक्ति है। यही परमेश्वर के कार्य का निहित सिद्धांत और अनेक उपायों में से एक है जिससे परमेश्वर अपने प्रबंधन को पूर्ण करता है। यदि परमेश्वर इस प्रकार से कार्य न करे, तो मनुष्य बदल नहीं पाएगा या परमेश्वर को जान नहीं पाएगा, और शैतान पराजित नहीं होगा। इसलिए, उसके कार्य में निरंतर परिवर्तन होता रहता है जो अनिश्चित दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में ये समय-समय पर होने वाले परिवर्तन हैं। हालाँकि, मनुष्य जिस प्रकार से परमेश्वर पर विश्वास करता है, वह बहुत भिन्न है। वह पुराने, परिचित सिद्धांतों और पद्धतियों से चिपका रहता है, और जितने अधिक वे पुराने होते हैं उतने ही अधिक उसे प्रिय होते हैं। मनुष्य का मूर्ख दिमाग, एक ऐसा दिमाग जो पत्थर के समान दुराग्रही है, परमेश्वर के इतने सारे अथाह नए कार्यों और वचनों को कैसे स्वीकार कर सकता है? मनुष्य हमेशा नए रहने वाले और कभी भी पुराने न होने वाले परमेश्वर से घृणा करता है; वह हमेशा ही प्राचीन सफेद बाल वाले और स्थिर परमेश्वर को पसंद करता है। इस प्रकार, क्योंकि परमेश्वर और मनुष्य, दोनों की अपनी-अपनी पसंद है, मनुष्य परमेश्वर का बैरी बन गया है। इनमें से बहुत से विरोधाभास आज भी मौजूद हैं, ऐसे समय में जब परमेश्वर लगभग छः हजार सालों से नया कार्य कर रहा है। तब, वे किसी भी इलाज से परे हैं। हो सकता है कि यह मनुष्य की हठ के कारण या किसी मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के प्रबंधन के नियमों की अनुल्लंघनीयता के कारण हो—परन्तु वे पादरी और महिलाएँ अभी भी फटी-पुरानी किताबों और दस्तावेजों से चिपके रहते हैं, जबकि परमेश्वर अपने प्रबंधन के अपूर्ण कार्य को ऐसे आगे बढ़ाता जाता है मानो उसके साथ कोई है ही नहीं। हालांकि ये विरोधाभास परमेश्वर और मनुष्यों को शत्रु बनाते हैं, और इनमें कभी मेल भी नहीं हो सकता है, परमेश्वर उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता है, जैसे कि वे होकर भी नहीं हैं। फिर भी मनुष्य, अभी भी अपनी आस्थाओं और अवधारणाओं से चिपका रहता है, और उन्हें कभी भी छोड़ता नहीं है। फिर भी एक बात बिल्कुल स्पष्ट है: हालांकि मनुष्य अपने रुख से विचलित नहीं होता है, परमेश्वर के कदम हमेशा आगे बढ़ते रहते हैं और वह अपना रुख परिस्थितियों के अनुसार हमेशा बदलता रहता है, और अंत में, यह मनुष्य ही होगा जो बिना लड़ाई लड़े हार जाएगा। परमेश्वर, इस समय, अपने हरा दिए गए दुश्मनों का सबसे बड़ा शत्रु है, और इंसानों में जो हार गए हैं और वे जो अभी भी हारने के लिए बचे हैं, उनके मध्य विजेता भी मौजूद हैं। परमेश्वर के साथ कौन प्रतिस्पर्धा कर सकता है और विजयी हो सकता है? मनुष्य की अवधारणाएं परमेश्वर से आती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि उनमें से कई परमेश्वर के कार्यों के द्वारा ही उत्पन्न हुई हैं। फिर भी परमेश्वर इस कारण से मनुष्यों को नहीं क्षमा करता है, इसके अलावा, न ही वह परमेश्वर के कार्य के बाहर खेप-दर-खेप "परमेश्वर के लिए" ऐसे उत्पाद उत्पन्न करने के लिए मनुष्य की प्रशंसा करता है। इसके बजाय, वह मनुष्यों की अवधारणाओं और पुरानी, पवित्र आस्थाओं के कारण बहुत ही ज्यादा चिढ़ा हुआ है और यहां तक कि वह उन तिथियों की भी उपेक्षा करता है जिसमें ये अवधारणाएं सबसे पहले सामने आई थीं। वह इस बात को बिल्कुल स्वीकार नहीं करता है कि ये अवधारणाएँ उसके कार्य के कारण बनी हैं, क्योंकि मनुष्य की अवधारणाएं मनुष्यों के द्वारा ही फैलाई जाती हैं; उनका स्रोत मनुष्यों की सोच और दिमाग है, परमेश्वर नहीं बल्कि शैतान है। परमेश्वर का इरादा हमेशा यही रहा है कि उसके कार्य नए और जीवित रहें, पुराने या मृत नहीं, और जिन बातों को वह मनुष्यों को दृढ़ता से थामे रखने के लिए कहता है वह युगों और कालों में विभाजित है, न कि अनन्त और स्थिर है। यह इसलिए क्योंकि वह परमेश्वर है जो मनुष्य को जीवित और नया बनने के योग्य बनाता है, बजाय शैतान के जो मनुष्य को मृत और पुराना बने रहने देना चाहता है। क्या तुम सब अभी भी यह नहीं समझते हो? तुम में परमेश्वर के प्रति अवधारणाएं हैं और तुम उन्हें छोड़ पाने में सक्षम नहीं हो क्योंकि तुम संकीर्ण दिमाग वाले हो। ऐसा इसलिए नहीं है कि परमेश्वर के कार्य में बहुत कम बोध है, या इसलिए कि परमेश्वर का कार्य मानवीय इच्छाओं के अनुसार नहीं है—इसके अलावा, न ही ऐसा इसलिए है कि परमेश्वर अपने कर्तव्यों के प्रति हमेशा बेपरवाह रहता है। तुम अपनी अवधारणाओं को इसलिए नहीं छोड़ सकते हो क्योंकि तुम्हारे अंदर आज्ञाकारिता की अत्यधिक कमी है और क्योंकि तुममें परमेश्वर की सृष्टि की थोड़ी सी भी समानता नहीं है, इसलिए नहीं कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ों को कठिन बना रहा है। यह सब कुछ तुम्हारे ही कारण हुआ है और इसका परमेश्वर के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है; सारे कष्ट और दुर्भाग्य केवल मनुष्य के कारण ही आये हैं। परमेश्वर के इरादे हमेशा नेक होते हैं: वह तुम्हें अवधारणा बनाने का कारण देना नहीं चाहता, बल्कि वह चाहता है कि युगों के बदलने के साथ-साथ तुम भी बदल जाओ और नए होते जाओ। फिर भी तुम फ़र्क नहीं कर सकते हो और हमेशा या तो अध्ययन या फिर विश्लेषण कर रहे होते हो। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीज़ें मुश्किल बना रहा है, बल्कि तुममें परमेश्वर के लिए आदर नहीं है, और तुम्हारी अवज्ञा भी बहुत ज्यादा है। एक छोटा सा प्राणी जो पहले परमेश्वर के द्वारा दिया गया था, उसका बहुत ही नगण्य भाग लेने का साहस करता है, और परमेश्वर पर आक्रमण करने के लिए उसे पलट देता है—क्या यह मनुष्यों के द्वारा अवज्ञा नहीं है? यह कहना उचित है कि परमेश्वर के सामने अपने विचारों को व्यक्त करने में मनुष्य पूरी तरह से अयोग्य है, और अपनी इच्छानुसार बेकार, बदबूदार, सड़े हुए सिद्धांतों के साथ ही साथ उन खोटी अवधारणाओं को व्यक्त करने में तो और भी अयोग्य है। क्या ये और भी बेकार नहीं हैं?
परमेश्वर की सचमुच सेवा करने वाला व्यक्ति वह है जो परमेश्वर के हृदय के करीब है और परमेश्वर के द्वारा उपयोग किए जाने के योग्य है, और जो अपनी धार्मिक अवधारणाओं को छोड़ पाने में सक्षम है। यदि तुम चाहते हो कि परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना फलदायी हो, तो तुम्हें अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करना होगा। यदि तुम परमेश्वर की सेवा करने की इच्छा रखते हो, तो यह तुम्हारे लिए और भी आवश्यक होगा कि तुम सबसे पहले अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करो और अपने सभी कार्यों में परमेश्वर के वचनों का पालन करो। परमेश्वर की सेवा करने के लिए व्यक्ति में यह सब गुण होना चाहिए। यदि तुममें इस ज्ञान की कमी है, जैसे ही तुम परमेश्वर की सेवा करोगे, तुम उसमें रुकावटें और बाधाएँ उत्पन्न करोगे, और यदि तुम अपनी अवधारणाओं को पकड़े रहोगे, तो तुम निश्चित तौर पर परमेश्वर के द्वारा फिर कभी न उठ पाने के लिए गिरा दिए जाओगे। उदाहरण के लिए, वर्तमान को देखो। आज के बहुत सारे कथन और कार्य बाइबल के अनुरूप नहीं हैं और परमेश्वर के द्वारा पूर्व में किए गए कार्य के साथ असंगत भी हैं, और यदि आज्ञा मानने की इच्छा तुम्हारे अंदर नहीं है तो किसी भी समय तुम्हारा पतन हो सकता है। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य करना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग करना होगा और अपने विचारों को ठीक करना होगा। भविष्य में कही जाने वाली बहुत सारी बातें अतीत में कही गई बातों से असंगत होगी, और यदि अब तुममें आज्ञापालन की इच्छा की कमी होगी, तो तुम अपने सामने आने वाले मार्ग पर चल नहीं पाओगे। यदि परमेश्वर के कार्य करने का कोई एक तरीका तुम्हारे भीतर जड़ जमा लेता है और तुम उसे कभी छोड़ते नहीं हो, तो यह तरीका तुम्हारी धार्मिक अवधारणा बन जाएगा। यदि परमेश्वर क्या है, इस सवाल ने तुम्हारे भीतर जड़ जमा ली है तो तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, और यदि परमेश्वर के वचन और सत्य तुम्हारा जीवन बनने के योग्य हैं, तो तुम्हारे भीतर परमेश्वर के बारे में अवधारणाएं अब और नहीं होंगी। जो कोई परमेश्वर के बारे में सही ज्ञान रखता है उसमें कोई भी अवधारणा नहीं होगी, और वह सिद्धांतों का पालन नहीं करेगा।
इन प्रश्नों को पूछकर अपने आप को जगाओ:
1. क्या तुम्हारा भीतर का ज्ञान परमेश्वर की सेवकाई करने में विघ्न डालता है?
2. तुम्हारे दैनिक जीवन में कितनी धार्मिक प्रथाएँ हैं? यदि तुम मात्र भक्ति का रूप दिखाते हो, तो क्या इसका अर्थ यह है कि तुम्हारा जीवन विकसित और परिपक्व हो गया है?
3. जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, क्या तुम अपनी धार्मिक अवधारणाओं का त्याग कर पाते हो?
4. जब तुम प्रार्थना करते हो, तो क्या धार्मिक अनुष्ठानों से दूर हो पाते हो?
5. क्या तुम परमेश्वर के द्वारा उपयोग में लाने के योग्य हो?
6. तुम्हारी परमेश्वर के ज्ञान में कितनी धार्मिक अवधारणाएं हैं?
स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया

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