3.8.17

स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II


परमेश्वर का धर्मी स्वभाव

आप परमेश्वर के अधिकार के बारे में पिछली सभा में सुन चुके हैं, अब मैं आश्वस्त हूं कि आप उस मुद्दे पर शब्दों की व्यूह रचना के साथ पूर्ण रूप से सुसज्जित हो गए हैं। आप कितना अधिक स्वीकार, आभास और समझ सकते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि आप उसके लिए कितना प्रयास करेंगे। यह मेरी आशा है कि आप इस मुद्दे तक बड़े उत्साह से पहुंच सकें; आपको किसी भी कीमत पर इसके साथ अधूरे मन से व्यवहार नहीं करना चाहिए। अब, क्या परमेश्वर के अधिकार को जानना परमेश्वर की सम्पूर्णता को जानने के समान है? कोई कह सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानना स्वयं अद्वितीय परमेश्वर को जानने की शुरुआत है, और कोई यह भी कह सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानने का अर्थ है कि किसी ने स्वयं अद्वितीय परमेश्वर की हस्ती को जानने हेतु पहले से ही द्वार के भीतर कदम रख दिया है। यह समझ परमेश्वर को जानने का एक भाग है। दूसरा भाग क्या है? यह वह विषय है जिसके बारे मैं आज विचार विमर्श करना चाहूंगा - परमेश्वर का धर्मी स्वभाव।
जिसके तहत आज के विषय के बारे में विचार विमर्श करने के लिए मैंने बाइबल से दो खण्डों का चयन किया है: पहला परमेश्वर द्वारा सदोम के विनाश से सम्बन्धित है, जिसे उत्पत्ति 19:1-11 और उत्पत्ति 19:24-25 में पाया जा सकता है; दूसरा परमेश्वर द्वारा नीनवे के छुटकारे से सम्बन्धित है, जिसे पुस्तक के तीसरे और चौथे अध्यायों के अतिरिक्त योना 1:1-2 में पाया जा सकता है। मैं सन्देह करता हूँ कि आप सभी सुनने के लिए इंतज़ार कर रहे हैं कि मुझे इन दो खण्डों के बारे में क्या कहना है। जो कुछ मैं सहजता से कहता हूँ वह स्वयं परमेश्वर को जानने और उसकी हस्ती को जानने के मुख्य विषय से अलग नहीं हो सकता है, किन्तु आज की सहभागिता का केन्द्र क्या होगा? क्या आप लोगों में से कोई जानता है? “परमेश्वर के अधिकार” के बारे में मेरे विचार विमर्श के किन भागों ने आपका ध्यान खींचा था? मैंने क्यों कहा था कि केवल वही जो ऐसा अधिकार और सामर्थ धारण करता है स्वयं परमेश्वर है? ऐसा कहने के द्वारा मैं क्या समझाना चाहता हूँ? मैं आपको क्या सूचित करना चाहता था? जिस प्रकार उसकी हस्ती को प्रदर्शित किया गया है क्या परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ एक पहलु है? क्या वे उसकी हस्ती के एक भाग हैं जो उसकी पहचान और पदस्थिति को प्रमाणित करती है? क्या इन प्रश्नों ने आपको बता दिया है कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ? मैं आपको क्या समझाना चाहता हूँ? सावधानी से इस पर विचार कीजिए।

(I) ढिठाई से परमेश्वर का विरोध करने से, मनुष्य परमेश्वर के क्रोध के द्वारा नाश हो जाता है।

सर्वप्रथम, आइए हम पवित्र शास्त्र के अनेक अंशों को देखें जो “परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश” की व्याख्या करते हैं।
(उत्पत्ति 19:1-11) ‘‘सांझ को वे दो दूत सदोम के पास आए और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उनको देखकर वह उनसे भेंट करने के लिए उठा और मुंह के बल झुककर दण्डवत कर कहा ‘हे मेरे प्रभुओं, अपने दास के घर में पधारिये और रात भर विश्राम कीजिये और आपने पांव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइये’।’’ उन्होंने कहा, ‘‘नहीं हम चौक ही में रात बिताएंगे।’’ पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया, इसलिए वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए और उसने उनके लिए भोजन तैयार किया और बिना खमीर की रोटियां बनाकर उनको खिलाई; उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया और लूत को पुकारकर कहने लगे, ‘‘जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहां हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।’’ तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया और किवाड़ को अपने पीछे बंद करके कहा ‘‘हे मेरे भाइयों ऐसे बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियां हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुंह नहीं देखा, इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊं और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो, पर इन पुरुषों से कुछ न करो, क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।’’ उन्होंने कहा ‘‘हट जा!’’ फिर वे कहने लगे, ‘‘तू एक परदेशी होकर यहां रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है, इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।’’ और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए। तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया और किवाड़ को बंद कर दिया और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरुषों को जो घर के द्वार पर थे, अन्धा कर दिया, अत: वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।’’
(उत्पत्ति 19:24-25) ‘‘तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।’’
इन अंशों से, यह देखना कठिन नहीं है कि सदोम का अधर्म और भ्रष्टता पहले से ही उस मात्रा तक पहुँच चुका था जो परमेश्वर और मुनष्यों दोनों के लिए घृणास्पद था, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में नगर नाश किए जाने के लायक था। परन्तु नगर के नाश किए जाने से पहले उसके भीतर क्या हुआ था? हम इन घटनाओं से क्या सीख सकते हैं? इन घटनाओं के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति उसके स्वभाव के विषय में हमें क्या दिखाती है? सम्पूर्ण कहानी को समझने के लिए, जो कुछ पवित्र शास्त्र में लिखा गया था आइए हम उसे सावधानीपूर्वक पढ़ें....।
सदोम की भ्रष्टताः मुनष्यों को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर के कोप को भड़काने वाली
उस रात, लूत ने परमेश्वर के दो दूतों का स्वागत किया और उनके लिए एक भोज तैयार किया। रात्रि के भोजन पश्चात्, उनके लेटने से पहले, नगर के चारों ओर से लोगों की भीड़ ने लूत के घर को घेर लिया और लूत को बाहर बुलाने लगे। पवित्र शास्त्र उन्हें दर्ज करता है यह कहते हुए, “जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहां हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।” इन शब्दों को किसने कहा था? इन्हें किन से कहा गया था? ये सदोम के लोगों के शब्द थे, जो लूत के घर के बाहर चिल्लाते थे और ये लूत के लिए थे। इन शब्दों को सुनकर कैसा महसूस होता है? क्या आप क्रोधित हैं? क्या इन शब्दों से आपको घिन आती है? क्या आप क्रोध के मारे आगबबूला हो रहे हैं? क्या ये शब्द शैतान की तीखी दुर्गन्ध नहीं है? उनके जरिए, क्या आप इस नगर की बुराई और अन्धकार का एहसास सकते हैं? क्या आप उनके शब्दों के जरिए इन लोगों के व्यवहार की क्रूरता और असभ्यता का एहसास कर सकते हैं? क्या आप उनके आचरण के जरिए उनकी भ्रष्टता की गहराई का एहसास कर सकते हैं? उनकी बोली की विषयवस्तु के जरिए, यह देखना कठिन नहीं है कि उनकी बुरी प्रवृत्ति और हिंसक स्वभाव एक ऐसे स्तर तक पहुँच गया था जो उनके खुद के नियन्त्रण से परे था। लूत को छोड़कर, नगर का हर अंतिम व्यक्ति शैतान से अलग नहीं था; अन्य व्यक्तियों की मात्र झलक से ही ये लोग उन्हें नुकसान पहुंचना और निगल जाना चाहते थे.....। ये चीज़ें न केवल एक व्यक्ति को नगर के भयंकर और डरावने स्वभाव, साथ ही साथ इस के चारों ओर मौत के घेरे का एहसास कराती हैं; बल्कि वे एक व्यक्ति को उसकी बुराई एवं खूनी प्रवृत्ति का भी एहसास कराती हैं।
जब उसने स्वयं को अमानवीय ठगों के गिरोह के आमने-सामने पाया, ऐसे लोग जो प्राणों को निगल जाने की लालसा से भरे हुए थे, तो लूत ने कैसा प्रत्युत्तर दिया था? पवित्र शास्त्र के अनुसार: ‘‘हे भाइयों ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियां है जिन्होंने अब तक पुरुष का मुंह नहीं देखा, इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊं और तुमको जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो, पर इन पुरुषों से कुछ न करो, क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।’’ लूत के शब्दों का अभिप्राय निम्नलिखित था: वह दूतों को बचाने के लिए अपनी दो बेटियों को त्यागने के लिए तैयार हो गया था। इस कारण से, इन लोगों को लूत की शर्तों से सहमत हो जाना चाहिए था और दोनों दूतों को अकेला छोड़ देना चाहिए था; बहरहाल, वे दूत उनके लिए पूरी तरह से अजनबी थे, ऐसे लोग जिनका उनके साथ कोई लेना देना नहीं था; इन दोनों दूतों ने उनके हितों को कभी भी नुकसान नहीं पहुंचाया था। फिर भी, अपनी बुरी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर, उन्होंने उस मुद्दे को यहाँ पर नहीं छोड़ा। उसके बजाए, उन्होंने केवल अपने प्रयासों को और अधिक तेज कर दिया। यहां उनकी एक और अदला-बदली बिना किसी सन्देह के एक व्यक्ति को इन लोगों के असली पापपूर्ण स्वभाव की और अधिक अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकती है; उसी समय यह किसी व्यक्ति को उस कारण को जानने और बूझने की अनुमति भी देती है कि क्यों परमेश्वर इस नगर को नाश करना चाहता था।
अत: उन्होंने आगे क्या कहा? जैसा बाइबल में पढ़ते है: ‘‘हट जा!’’ फिर वे कहने लगे, ‘‘तू एक परदेशी होकर यहां रहने के लिए आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा, इसलिए अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।’’ और वे उस पुरुष को बहुत दबाने लगे और किवाड़ तोड़ने के लिए निकट आए।’’ वे किवाड़ को क्यों तोड़ना चाहते थे? वजह यह है कि वे उन दोनों दूतों को नुकसान पहुँचाने के लिए बहुत उत्सुक थे। वे दोनों दूत सदोम में क्या कर रहे थे? वहां आने का उनका उद्देश्य था लूत एवं उसके परिवार को बचाना; फिर भी, नगर के लोगों ने ग़लत रीति से सोचा कि वे आधिकारिक पदों पर हक़ जमाने के लिए आए थे। उनके उदेश्य को पूछे बिना, यह मात्र अनुमान ही था जिससे नगरवासियों ने असभ्यता से उन दोनों दूतों को नुकसान पहुंचाना चाहा; वे ऐसे दो जनों को चोट पहुंचाना चाहते थे जिनका उनके साथ किसी भी प्रकार का लेना देना नहीं था। यह स्पष्ट है कि नगर के लोगों ने पूरी तरह से अपनी मानवता और तर्कशक्ति को गंवा दिया था। उनके पागलपन और असभ्यता का स्तर पहले से ही मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले और निगल जानेवाले शैतान के दुष्ट स्वभाव से अलग नहीं था।
जब उन्होंने लूत से इन लोगों को मांगा, तब लूत ने क्या किया? पाठ से हमें ज्ञात होता है कि लूत ने उन्हें नहीं सौंपा। क्या लूत परमेश्वर के इन दोनों दूतों को जानता था? बिलकुल भी नहीं! परन्तु वह इन दोनों लोगों को बचाने में समर्थ क्यों था? क्या उसे मालूम था कि वे क्या करने आए थे? यद्यपि वह उनके आने के कारण से अनजान था, फिर भी वह जानता था कि वे परमेश्वर के सेवक हैं, और इस प्रकार उसने उनका स्वागत किया। सदोम के भीतर के अन्य लोगों से अलग, वह परमेश्वर के इन दासों को स्वामी कहकर बुला सकता था जो यह दिखाता है कि लूत आम तौर पर परमेश्वर का एक अनुयायी था। इसलिए, जब परमेश्वर के दूत उसके पास आए, तो इन दोनों सेवकों का स्वागत करने के लिए उसने अपने स्वयं के जीवन को जोखिम में डाल दिया था, उससे बढ़कर, इन दोनों सेवकों की सुरक्षा करने के लिए उसने अपनी बेटियों की अदला-बदली भी की थी। यह लूत का धर्मी कार्य है; साथ ही यह लूत के स्वभाव और उसकी हस्ती का एक स्पृश्य प्रकटीकरण है, और साथ ही यह वह कारण भी है कि परमेश्वर ने लूत को बचाने के लिए अपने सेवकों को भेजा था। जोखिम का सामना करते समय, लूत ने किसी भी चीज़ की परवाह किए बगैर इन दोनों सेवकों की सुरक्षा की; यहाँ तक कि उसने सेवकों की सुरक्षा के बदले में अपनी दोनों बेटियों का सौदा करने का भी प्रयास किया था। लूत के अतिरिक्त, क्या नगर के भीतर कोई ऐसा था जो कुछ इस तरह का काम कर सकता था? जैसे कि तथ्य साबित करते हैं – नहीं ! इसलिए, कहने की आवश्यकता नहीं है कि लूत को छोड़कर सदोम के भीतर हर कोई विनाश का एक लक्ष्य था साथ ही साथ एक ऐसे लक्ष्य के समान था जो विनाश के योग्य था।
परमेश्वर के क्रोध को भड़काने के कारण सदोम को तबाह कर दिया गया
जब सदोम के लोगों ने इन दो सेवकों को देखा, तो उन्होंने उनके आने का कारण नहीं पूछा, न ही किसी ने यह पूछा कि क्या वे परमेश्वर की इच्छा का प्राचर करने के लिए आए थे। इसके विपरीत, उन्होंने एक भीड़ इकट्ठा की और, स्पष्टीकरण का इंतज़ार किए बगैर, जंगली कुत्तों या दुष्ट भेड़ियों के समान उन दोनों सेवकों को पकड़ने के लिए आ गए। क्या परमेश्वर ने इन चीज़ों को देखा था जब वे घटित हुई थीं? इस प्रकार के मानवीय व्यवहार, और इस प्रकार की चीज़ को लेकर परमेश्वर अपने हृदय में क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने इस नगर का नाश करने का निर्णय लिया; अब वह संकोच और इंतज़ार नहीं करेगा, न ही वह निरन्तर धीरज दिखाएगा। उसका दिन आ चुका था, अतः उसने उस कार्य को आरम्भ किया जिसे उसने करने की इच्छा की थी। इस प्रकार, उत्पत्ति 19:24-25 कहता है “तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्ट कर दिया।” ये दोनों पद लोगों को उस पद्धति के बारे में बताते हैं जिसके तहत परमेश्वर ने नगर को नष्ट किया था; और यह लोगों को यह भी बताता है कि परमेश्वर ने क्या नाश किया था। प्रथम, बाईबिल वर्णन करती है कि परमेश्वर ने उस नगर को आग से जला दिया, और यह कि आग की मात्रा समस्त लोगों और जो कुछ भूमि पर उगता था उसे नष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। कहने का तात्पर्य है, वह आग जो स्वर्ग से गिरी उसने न केवल उस नगर को नष्ट किया; बल्कि उसने उसके भीतर समस्त लोगों और जीवित प्राणियों को भी नष्ट कर दिया, और बिना किसी नामोनिशान के सब कुछ नष्ट कर दिया। नगर के नष्ट होने के पश्चात्, वह भूमि जीवित प्राणियों से विहीन हो गई थी। वहां और कोई जीवन नहीं था, और न ही जीवन के निशान थे। नगर एक उजड़ी भूमि और एक खाली स्थान बन गया था जो मौत की ख़ामोशी से भरा हुआ था। इस स्थान पर परमेश्वर के विरुद्ध अब और कोई बुरा कार्य नहीं होगा; अब और कोई हत्या या ख़ून ख़राबा नहीं होगा।
परमेश्वर क्यों इस नगर को पूरी तरह से जलाना चाहता था? आप यहां क्या देख सकते हैं? क्या परमेश्वर मनुष्य और प्रकृति, एवं अपनी स्वयं की सृष्टि को इस तरह नाश होते हुए देख पाता? यदि आप उस आग से यहोवा परमेश्वर के कोप को परख सकते हैं जिसे स्वर्ग से नीचे गिराया गया था, तो उसकी विनाशलीला के लक्ष्य से साथ ही साथ जिस हद तक इस नगर को नष्ट किया गया था उस से उसके फैलाव के स्तर को देखना कठिन नहीं है। जब परमेश्वर किसी नगर को तुच्छ जानता है, तो वह अपने दण्ड को उसके ऊपर डालेगा। जब परमेश्वर किसी नगर से अप्रसन्न को जाता है, तो वह लोगों को अपने क्रोध के बारे में सूचित करते हुए बार बार चेतावनियां जारी करेगा। फिर भी, जब परमेश्वर एक नगर का खात्मा और विनाश करने का निर्णय लेता है – अर्थात्, उसके क्रोध और वैभव को ठेस पहुँचाया गया है – तो वह आगे से और दण्ड और चेतावनी नहीं देगा। वह उसे पूरी तरह से मिटा देगा। यह परमेश्वर का धर्मी स्वभाव है।
परमेश्वर के प्रति सदोम के लगातार प्रतिरोध और शत्रुता के पश्चात्, उसने उसे पूरी तरह से मिटा दिया है
जब एक बार हम में परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सामान्य समझ आ जाती है, तो हम अपने ध्यान को सदोम के नगर की ओर मोड़ सकते हैं – जिसे परमेश्वर ने पाप की नगरी के रूप में देखा था। इस नगर की हस्ती को समझने के द्वारा, हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर इसे क्यों नष्ट करना चाहता था और उसने इसे क्यों पूरी तरह से नष्ट किया था। इससे, हम परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को जान सकते हैं।
मानवीय दृष्टिकोण से, सदोम ऐसा नगर था जो मनुष्य की इच्छा और मनुष्य की दुष्टता दोनों को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता था। वह प्रलोभन देने वाला और मोहित करने वाला था, जहाँ हर रात संगीत और नृत्य के साथ, उसकी सम्पन्नता ने मनुष्यों को आकर्षण और उन्माद की और धकेल दिया। बुराई ने लोगों के हृदयों को कलुषित कर दिया और उन्हें मोहित करके पतित कर दिया। यह एक ऐसा नगर था जहां अशुद्ध आत्माएं और दुष्ट आत्माएं बेधड़क मण्डराया करते थे; यह पाप और हत्या से पूरी तरह भरा हुआ था और ख़ूनी एवं सड़े हुए दुर्गन्ध से भरपूर था। यह एक ऐसा नगर था जिसने लोगों की हड्डियों तक को सुन्न कर दिया, एवं एक ऐसा नगर था जिससे कोई भी अपने आपको पीछे खींच लेता। इस नगर में ऐसा कोई नहीं था - न पुरुष और न स्त्री, न जवान और न बुज़ुर्ग - जो सच्चे मार्ग को खोजता था; कोई भी प्रकाश की लालसा नहीं करता था या पाप से दूर जाने की इच्छा नहीं करता था। वे शैतान के नियन्त्रण, भ्रष्टता और धूर्तता में जीवन बिताते थे। उन्होंने अपनी मानवता को खो दिया था; उन्होंने अपनी संवेदनाओं को गवां दिया था, और उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व के मूल उद्देश्य को खो दिया था। उन्होंने परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध के अनगिनित पापों को अंजाम दिया था; उन्होंने उसके मार्गदर्शन को अस्वीकार किया और उसकी इच्छा का विरोध किया था। ये उनके बुरे कार्य थे जिसने इन लोगों को, नगर को, और उसके भीतर के हर एक जीवित प्राणी को कदम दर कदम विनाश के पथ पर नीचे पहुंचा दिया था।
यद्यपि ये दोनों अंश उन विवरणों को दर्ज नहीं करते हैं जो सदोम के लोगों की भ्रष्टता के विस्तार का वर्णन करते हैं, इसके बजाए वे नगर में उनके आगमन के बाद परमेश्वर के दोनों सेवकों के प्रति उनके व्यवहार को दर्ज करते हैं, और एक साधारण सा सत्य प्रकट कर सकता है कि किस हद तक सदोम के लोग भ्रष्ट एवं दुष्ट थे और परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे। इसके साथ ही, नगर के लोगों के असली चेहरे और तत्व का भी खुलासा हो जाता है। उन्होंने न केवल परमेश्वर की चेतावनियों को स्वीकार नहीं किया था, बल्कि वे उसके दण्ड से भी नहीं डरते थे। इसके विपरीत, उन्होंने परमेश्वर के कोप का उपहास किया। उन्होंने आंख बंद करके परमेश्वर का प्रतिरोध किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसने क्या किया था या उसने इसे कैसे किया था, क्योंकि उनका दुष्ट स्वभाव केवल तेजी से बढ़ता गया था, और उन्होंने लगातार परमेश्वर का विरोध किया था। सदोम के लोग परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आगमन, उसके दण्ड, और उससे बढ़कर, उसकी चेतावनियों के विरुद्ध थे। उन्होंने उन सभी लोगों को निगल लिया और नुकसान पहुँचाया जिन्हें निगला और नुकसान पहुँचाया जा सकता था, और उन्होंने परमेश्वर के सेवकों से कोई अलग बर्ताव नहीं किया था। सदोम के लोगों के द्वारा की गई दुष्टता के तमाम कार्यों के लिहाज से, परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुंचना तो बस हिमशैल का ऊपरी छोर था, और इससे जो उनका दुष्ट स्वभाव प्रकट हुआ था वह वास्तव में विशाल समुद्र में पानी की एक बूंद से थोड़ा और बढ़ गया था। इसलिए, परमेश्वर ने उन्हें आग से नष्ट करने का चुनाव किया। परमेश्वर ने नगर को नष्ट करने के लिए बाढ़ का इस्तेमाल नहीं किया, न ही उसने चक्रवात, भूकम्प, सुनामी या किसी और तरीके का इस्तेमाल किया। इस नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल क्या सूचित करता है? इसका अर्थ नगर का सम्पूर्ण विनाश था, इसका अर्थ था कि नगर पूरी तरह से पृथ्वी से और अस्तित्व से लोप हो गया था। यहां, “विनाश” न केवल नगर के आकार और ढांचे या बाहरी रूप के लोप हो जाने की ओर संकेत करता है; बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि पूरी रीति से मिटा दिए जाने के बाद नगर के भीतर के लोगों की आत्माएं भी अस्तित्व में नहीं थे। साधारण रूप से कहें, तो नगर के साथ जुड़े सभी लोगों, घटनाओं और चीज़ों को नष्ट किया गया था। उनके लिए मृत्यु पश्चात् जीवन या पुन:देहधारण नहीं होगा; परमेश्वर ने उन्हें मानवता से, एवं अपनी सृष्टि से हमेशा हमेशा के लिए मिटा दिया था। “आग का इस्तेमाल” गुनाह के विराम को सूचित करता है, और इसका अर्थ है पाप का अंत; यह पाप अस्तित्व में नहीं रहेगा और नहीं फैलेगा। इसका अर्थ था कि शैतान की दुष्टता ने अपनी पोषण भूमि को साथ ही साथ उस कब्रिस्तान को भी खो दिया था जिसने इसे रहने और जीने के लिए एक स्थान प्रदान किया था। परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध में, परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल उसकी विजय की छाप है जिससे शैतान पर छाप की गई है। मनुष्यों को भ्रष्ट और बर्बाद करने के द्वारा परमेश्वर का विरोध करने के लिए सदोम का विनाश शैतान की महत्वाकांक्षा में एक बहुत भारी चूक है, और उसी प्रकार यह मानवता के विकास के समय में एक अपमानजनक चिन्ह है जब मनुष्य ने परमेश्वर के मार्गदर्शन को ठुकरा दिया था और बुराई के लिए अपने आपका परित्याग किया था। इसके अतिरिक्त, यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के सच्चे प्रकाशन का एक लेख है।
जब उस आग ने जिसे परमेश्वर ने स्वर्ग से भेजा था सदोम को राख में तब्दील कर दिया, तो इसका अर्थ था कि “सदोम” नामक नगर, और उसी प्रकार उस नगर के भीतर की हर चीज़ भी अस्तित्व में नहीं रही। इसे परमेश्वर के क्रोध के द्वारा नष्ट किया गया, यह परमेश्वर के क्रोध और महाप्रताप के अधीन लोप हो गया। परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के कारण सदोम को उसका न्यायोचित दण्ड मिला; और परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के कारण, उसे उसका न्यायोचित अंत मिला। सदोम के अस्तित्व का अन्त उसकी बुराई के कारण हुआ, और साथ ही यह इस कारण से भी था क्योंकि परमेश्वर दोबारा इस नगर को, साथ ही साथ किसी भी जन को जो इस नगर में रहता था या किसी भी जीवन को जो इस नगर में पनपा था देखना नहीं चाहता था। परमेश्वर की “इच्छा कि वह दोबारा इस नगर को कभी नहीं देखेगा,” यह उसका क्रोध और साथ ही साथ उसका महाप्रताप है।” परमेश्वर ने नगर को जला दिया क्योंकि उसकी बुराई और पाप ने उसे उसके प्रति क्रोध, घृणा और द्वेष का एहसास कराया था और वह उसको या किसी भी इंसान को और जीवित प्राणियों को दोबारा कभी नहीं देखना चाहता था। जब एक बार नगर का जलना समाप्त हो गया, और केवल राख ही रह गया, तो यह सचमुच में परमेश्वर की नज़रों में अस्तित्व में नहीं रहा; यहाँ तक कि उसकी यादें भी चली गईं और मिट गईं। इसका अर्थ है कि वह आग जिसे स्वर्ग से भेजा गया था उसने न केवल सदोम नगर और अधर्म को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था– जो लोगों के भीतर भरा हुआ था, और न केवल उसने नगर के भीतर सभी चीज़ों को नष्ट कर दिया जिन्हें पाप के द्वारा कलंकित कर दिया गया था; बल्कि उससे भी बढ़कर, इस आग ने मानवता की दुष्टता की यादों को और परमेश्वर की प्रति उनके प्रतिरोध को नष्ट कर दिया था। उस नगर को जलाकर राख करने में परमेश्वर का उद्देश्य यही था।
मानवता चरम सीमा तक पतित हो चुकी थी। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन था या वे कहाँ से आए थे। यदि आप परमेश्वर का जिक्र करते, तो ये लोग हमला कर देते, कलंक लगाते और ईश्वर की निन्दा करते। यहाँ तक कि जब परमेश्वर के सेवक उसकी चेतावनी का प्राचर करने आए थे, तब इन दुष्ट लोगों ने न केवल पश्चाताप को कोई चिन्ह नहीं दिखाया; बल्कि उन्होंने अपने दुष्ट आचरण को भी नहीं त्यागा। इसके विपरीत, उन्होंने ढिठाई से परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाया। जो कुछ उन्होंने उजागर और प्रकट किया था वह उनके स्वभाव और परमेश्वर के प्रति उनकी चरम शत्रुता का तत्व था। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के विरुद्ध इन भ्रष्ट लोगों का प्रतिरोध उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कहीं अधिक था, बिलकुल वैसे ही जैसे यह निंदा और उपहास करने के एक उदहारण से कहीं अधिक था जो सत्य की समझ की कमी से निकला था। न ही मूर्खता और न ही अज्ञानता ने उनके दुष्ट स्वभाव को उत्पन्न किया था; यह इसलिए नहीं था कि इन लोगों को धोखा दिया गया था, और यह तो बिलकुल भी नहीं था कि इन्हें भटकाया गया था। उनका चाल-चलन परमेश्वर के विरुद्ध खुले तौर पर निर्लज्ज शत्रुता, विरोध और उपद्रव के स्तर तक पहुंच चुका था। बिना किसी सन्देह के, इस प्रकार का मानवीय आचरण परमेश्वर को क्रोधित करेगा, और यह उसके स्वभाव क्रोधित करेगा- एक ऐसा स्वभाव जिसे ठेस नहीं पहुंचना चाहिए। इसलिए, परमेश्वर ने सीधे और खुले तौर पर अपने क्रोध और अपने प्रताप को जारी किया; यह उसके धर्मी स्वभाव का सच्चा प्रकाशन है। एक ऐसे नगर का सामना करते हुए जो पाप से उमड़ रहा था, परमेश्वर ने जहाँ तक संभव हो उसे अतिशीघ्र नाश करने की इच्छा की थी; वह उसके भीतर लोगों को और उनके सम्पूर्ण पापों को सबसे मुकम्मल रीति से मिटाना, और इस नगर के लोगों के अस्तित्व को समाप्त करना और इस स्थान के भीतर उस पाप को बहुगुणित होने से रोकना चाहता था। ऐसा करने का सबसे तेज और सबसे मुकम्मल तरीका था उसे आग से जलाकर नाश करना। सदोम के लोगों के प्रति परमेश्वर की मनोवृत्ति एक प्रकार से परित्याग या उपेक्षा नहीं थी; उसके बजाए, उसने इन लोगों को दण्ड देने, मारकर नीचे गिराने और पूरी तरह से नाश करने लिए अपने क्रोध, प्रताप और अधिकार का प्रयोग किया था। उनके प्रति उसकी मनोवृत्ति एक प्रकार से न केवल शारीरिक विनाश की थी किन्तु साथ ही प्राण के विनाश की थी, एक अनंतकालिक विध्वंस। यह उनके “अस्तित्व की समाप्ति के लिए” परमेश्वर की इच्छा का असली आशय है।
हालाँकि परमेश्वर का क्रोध मनुष्य से छिपा हुआ और अज्ञात है, फिर भी यह किसी अपराध को नहीं सहता है
समस्त मूर्ख और अबोध मानवता के प्रति परमेश्वर का उपचार मुख्य रूप से दया और सहनशीलता पर आधारित है। दूसरी ओर, उसका क्रोध समय और चीज़ों के अति विशाल पैमाने में छिपा हुआ है; मनुष्य इससे अनजान है। परिणामस्वरूप, यह मनुष्य के लिए कठिन है कि वह परमेश्वर को उसका क्रोध प्रदर्शित करते हुए देखे, और साथ ही उसके क्रोध को समझना भी कठिन है। जैसा कहा जा चुका है, मनुष्य परमेश्वर के क्रोध को हल्के में लेता है। जब मनुष्य परमेश्वर के अंतिम कार्य और सहनशीलता के कदम और मनुष्य की क्षमा का सामना करता है - अर्थात्, जब परमेश्वर की दया का अंतिम उदाहरण और उसकी अंतिम चेतावनी उनके पास पहुँचती है - यदि वे तब भी परमेश्वर का विरोध करने के लिए उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और पश्चाताप करने, अपने मार्गों को सुधारने या उसकी दया को स्वीकार करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं, तो परमेश्वर आगे से उनको अपनी सहनशीलता और धैर्य प्रदान नहीं करेगा। इसके विपरीत, यह वह समय है जब परमेश्वर अपनी दया को वापस ले लेगा। इसके पश्चात्, वह बस अपने क्रोध को प्रकट करेगा। वह अलग अलग तरीकों से अपने क्रोध को प्रकट कर सकता है, बिलकुल वैसे ही जैसे वह लोगों को दण्ड देने और नष्ट करने के लिए अलग अलग पद्धतियों का इस्तेमाल करता है।
सदोम नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर के द्वारा आग का इस्तेमाल करना मानवता और किसी जीव को सम्पूर्ण रीति से विनाश करने के लिए उसकी शीघ्रतम पद्धति है। सदोम के लोगों को जलाना उनकी शरीरिक देहों को नष्ट करने से कहीं अधिक था; इसने पूरी तरह से उनके आत्माओं, उनके प्राणों और उनके शरीरों को नष्ट कर दिया, यह सुनिश्चित करते हुए कि इस नगर के भीतर के लोग भौतिक संसार और मनुष्य के लिए अदृश्य संसार में अस्तित्व में नहीं रहेंगे। यह एक तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर अपने क्रोध को दर्शाता और प्रकट करता है। इस तरह का प्रकाशन और प्रदर्शन परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्व का एक पहलु है, बिलकुल वैसे ही जैसे यह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव का आवश्यक तत्व भी है। जब परमेश्वर अपने क्रोध को भेजता है, तो वह दया या करुणा प्रकट करना बन्द कर देता है, न ही वह कोई सहनशीलता या धैर्य प्रदर्शित करता है; तब कोई ऐसा व्यक्ति, वस्तु या कारण नहीं है जो उसे निरन्तर धीरज धरने, फिर से दया करने, और एक बार फिर से अपनी सहनशीलता को प्रकट करने के लिए रज़ामंद कर सकता है। इन चीज़ों के बदले में, बिना एक पल के संकोच के, परमेश्वर अपने क्रोध और प्रताप को प्रकट करेगा, जो कुछ वह चाहता है उसे करेगा, और वह इन चीज़ों को अपनी स्वयं की इच्छाओं के अनुरूप शीघ्रता से और साफ सुथरे तरीके से करेगा। यह वह तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर अपने क्रोध और प्रताप को प्रकट करता है, जिसे मनुष्य को ठेस नहीं पहुंचना चाहिए, और साथ ही यह उसके धर्मी स्वभाव के एक पहलु का प्रकटीकरण भी है। जब लोग परमेश्वर को मनुष्य के प्रति चिंता करते और प्रेम दिखाते हुए देखते हैं, तो वे उसके क्रोध का पता लगाने में, उसके प्रताप का एहसास करने में या गुनाह के प्रति उसकी असहनशीलता का एहसास करने में असमर्थ होते हैं। इन चीज़ों ने हमेशा से यह विश्वास करने में लोगों की अगुवाई की है कि परमेश्वर का धर्मी स्वभाव केवल दया, सहनशीलता और प्रेम है। फिर भी, जब कोई परमेश्वर को किसी नगर का विनाश करते हुए या मानवता को तुच्छ जानते हुए देखता है, तो मनुष्य के विनाश में उसका क्रोध और उसका प्रताप लोगों को उसके धर्मी स्वभाव के अन्य पक्ष की झलक देखने की अनुमति देता है। यह गुनाह के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता है। परमेश्वर का स्वभाव जो किसी गुनाह को सहन नहीं करता है वह किसी भी सृजे गए प्राणी की कल्पना से परे है, और न सृजे गए प्राणियों में से, कोई भी उसके साथ दखलंदाज़ी करने या उसको प्रभावित करने में सक्षम नहीं है; और उससे भी बढ़कर, इसका भेष धारण या इसका अनुकरण नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, परमेश्वर के स्वभाव यह पहलु ऐसा है जिसे मानवता को बहुत अच्छे से जानना चाहिए। केवल स्वयं परमेश्वर के पास ही इस प्रकार का स्वभाव है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही इस प्रकार के स्वभाव को धारण करता है। परमेश्वर इस प्रकार के धर्मी स्वभाव को धारण करता है क्योंकि वह दुष्टता, अंधकार, विद्रोहीपन और शैतान के बुरे कार्यों से घृणा करता है – मानवजाति को भ्रष्ट करना और निगल जाना – इसलिए क्योंकि वह अपने विरुद्ध पाप के सारे कार्यों से घृणा करता है और अपने पवित्र और बेदाग हस्ती के कारण। यह इसी लिए है क्योंकि वह किसी भी सृजे गए प्राणी या न सृजे गए प्राणी को उसका खुलकर विरोध करने या उससे मुकाबला करने की अनुमति नहीं देगा। यहाँ तक कि एक व्यक्ति भी जिसके प्रति उसने किसी समय दया दिखाई थी या किसी आवश्यकता की पूर्ति की थी वह सिर्फ उसके स्वभाव को क्रोधित करता है और उसके धीरज और सहनशीलता के सिद्धान्त का उल्लंधन करता है, और वह थोड़ी सी भी दया या संकोच के बगैर अपने धर्मी स्वभाव को जारी और प्रकट करेगा - ऐसा स्वभाव जो गुनाह को बर्दाश्त नहीं करता है।
परमेश्वर का क्रोध समस्त सच्ची शक्तियों और समस्त सकारात्मक चीज़ों के लिए बचाव है
परमेश्वर के कथन, विचारों और कार्यों के इन उदाहरणों को समझने के द्वारा, क्या आप परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को समझने में समर्थ हैं, एक ऐसा स्वभाव जिसे ठेस नहीं पहुंचाया जा सकता है? अंत में, यह उस स्वभाव का एक पहलु है जो स्वयं परमेश्वर के लिए अद्वितीय है, इसकी परवाह किए बगैर कि मनुष्य कितना समझ सकता है। गुनाह के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता उसकी विशिष्ट हस्ती है; परमेश्वर का क्रोध उसका विशिष्ट स्वभाव है; परमेश्वर का प्रताप उसकी विशिष्ट हस्ती है। परमेश्वर के क्रोध के पीछे का सिद्धान्त उस पहचान और हैसियत को दर्शाता जिसे सिर्फ उसने धारण किया है। किसी को जिक्र करने की आवश्यकता नहीं है कि यह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर की हस्ती का एक प्रतीक भी है। परमेश्वर का स्वभाव उसकी स्वयं की अंतर्निहित हस्ती है। यह समय के गुज़रने के साथ बिलकुल भी नहीं बदलता है, और जब कभी स्थान परिवर्तित होता है तब भी यह नहीं बदलता है। उसका अंतर्निहित स्वभाव उसकी स्वाभाविक हस्ती है। इसके बावजूद कि वह किसी पर अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, क्योंकि उसकी हस्ती नहीं बदलती है, न ही उसका धर्मी स्वभाव बदलता है। जब कोई उसे क्रोधित करता है, तो जिसे वह आगे भेजता है वह उसका अंतर्निहित स्वभाव है; इस समय उसके क्रोध के पीछे का सिद्धान्त नहीं बदलता है, और न ही उसकी अद्वितीय पहचान और हैसियत बदलती है। अपनी हस्ती में परिवर्तन के कारण या उसके स्वभाव ने अलग अलग तत्वों को उत्पन्न किया है इस कारण वह क्रोधित नहीं होता है, किन्तु इसलिए क्योंकि उसके विरुद्ध मनुष्य का विरोध उसके स्वभाव को ठेस पहुंचाता है। मनुष्य का परमेश्वर को बुरी तरह से उकसाना परमेश्वर की अपनी पहचान और हैसियत के लिए एक गम्भीर चुनौती है। परमेश्वर की नज़र में, जब मनुष्य उसे चुनौती देता है, तब मनुष्य उससे मुकाबला कर रहा है और उसके क्रोध की परीक्षा ले रहा है। जब मुनष्य परमेश्वर का विरोध करता है, जब मनुष्य परमेश्वर से मुकाबला करता है, जब मनुष्य लगातार उसके क्रोध की परीक्षा लेता है – तब भी जब उसका पाप अनियंत्रित हो जाता है - तब परमेश्वर का क्रोध स्वाभाविक रूप से अपने आपको प्रकट एवं प्रस्तुत करेगा। इसलिए, परमेश्वर के क्रोध का प्रकटीकरण संकेत करता है कि समस्त बुरी ताकतें अस्तित्व में नहीं रहेंगी; यह संकेत करता है कि सभी उपद्रवी शक्तियों को नष्ट किया जाएगा। यह परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की अद्वितीयता है, और यह परमेश्वर के क्रोध की अद्वितीयता है। जब परमेश्वर की गरिमा और पवित्रता को चुनौती दी जाती है, जब मनुष्य के द्वारा धर्मी ताकतों को रोका जाता है और इसकी अनदेखी की जाती है, तब परमेश्वर अपने क्रोध को भेजेगा। परमेश्वर की हस्ती के कारण, पृथ्वी की वे सारी ताकतें जो परमेश्वर का मुकाबला करती हैं, उसका विरोध करती हैं और उसके साथ संघर्ष करती हैं वे बुरी, भ्रष्ट और अधर्मी हैं; वे शैतान की ओर से आती हैं और उसी की हैं। क्योंकि परमेश्वर धर्मी है, और उस प्रकाश और दोषरहित पवित्रता के कारण, समस्त चीज़ें जो बुरी, भ्रष्ट और शैतान से सम्बन्धित हैं वे परमेश्वर के क्रोध के प्रकट होने के साथ ही विलुप्त हो जाएंगी।
यद्यपि परमेश्वर के क्रोध का उंडेला जाना उसके धर्मी स्वभाव के प्रदर्शन का एक पहलु है, फिर भी परमेश्वर का क्रोध अपने लक्ष्य के प्रति विवेकशून्य या सिद्धान्तविहीन बिलकुल भी नहीं है। इसके विपरीत, परमेश्वर क्रोध करने में बिलकुल भी उतावला नहीं है, न ही वह अपने क्रोध और प्रताप को जल्दबाजी में प्रकट करता है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर का क्रोध विशेष रूप से नियन्त्रित और और नपा-तुला होता है; इसकी तुलना इस बात से बिलकुल भी नहीं की जा सकती है कि मनुष्य किस प्रकार अपने क्रोध से आग बबूला होगा या अपने क्रोध को प्रकट करेगा। परमेश्वर और मनुष्य के बीच हुई अनेक बातचीत बाइबल में दर्ज हैं। इन में से कुछ लोगों के कथन सतही, अज्ञानी और बचकाने थे, किन्तु परमेश्वर ने उन्हें मारकर नीचे नहीं गिराया, और न ही उनकी भर्त्सना की। विशेष रूप से, अय्यूब की परीक्षा के दौरान, परमेश्वर ने अय्यूब के तीन मित्रों और दूसरों से कैसा बर्ताव किया था उन शब्दों को सुनने के पश्चात् जो उन्होंने अय्यूब से कहा था? क्या उसने उन्हें दोषी ठहराया था? क्या वह उन पर आग बबूला हो गया था? उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था! उसके बजाए उसने अय्यूब को उनके लिए विनती करने, और उनके लिए प्रार्थना करने के लिए कहा; दूसरी और परमेश्वर ने उनकी ग़लतियों को मन में नहीं रखा। ये सभी उदाहरण उस मुख्य मनोवृत्ति को दर्शाते हैं जिसके तहत परमेश्वर भ्रष्ट एवं अबोध मानवता से बर्ताव करता है। इसलिए, परमेश्वर के क्रोध का जारी होना उसके मिजाज़ का प्रदर्शन या प्रकट होना बिलकुल भी नहीं है। परमेश्वर का क्रोध गुस्से का बहुत बड़ा विस्फोट नहीं है जैसा मनुष्य इसे समझता है। परमेश्वर अपने क्रोध को इसलिए प्रकट नहीं करता है क्योंकि वह अपने मिजाज़ पर काबू करने में समर्थ नहीं है या क्योंकि उसका क्रोध उबलने के बिन्दु पर आ पहुंचा है और उसे बहार निकालना ही होगा। इसके विपरीत, उसका क्रोध उसके धर्मी स्वभाव का एक प्रदर्शन है और उसके धर्मी स्वभाव का एक विशुद्ध प्रकटीकरण है; यह उसकी पवित्र हस्ती का एक सांकेतिक प्रकाशन है। परमेश्वर क्रोध है, और किसी भी गुनाह के प्रति सहनशील नहीं है – कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि परमेश्वर का क्रोध विभिन्न कारणों के बीच अन्तर नहीं करता है या यह सिद्धान्तविहीन है; यह भ्रष्ट मानवता है जिसके पास सिद्धान्तविहीनता, और बिना सोचे समझे क्रोध के भड़कने पर एक व्यापक एकाधिकार है जो विभिन्न कारणों के बीच अन्तर नहीं करता है। जब एक बार किसी व्यक्ति के पास हैसियत आ जाती है, तो उसे अकसर अपने मिजाज़ पर नियन्त्रण पाने में कठिनाई होगी, और इस प्रकार वह अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए घटनाओं का इस्तेमाल करने में आनन्द करेगा; वह अक्सर बिना किसी स्पष्ट कारण के क्रोध से आगबबूला होगा, जिससे अपनी योग्यता को प्रकट कर सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान अन्य सामान्य लोगों से अलग हैं। हाँ वास्तव में, भ्रष्ट लोग बिना किसी हैसियत के भी बार बार नियन्त्रण खो देते हैं। उनके व्यक्तिगत हितों के नुकसान के द्वारा उनका क्रोध बार बार प्रकट होता है। अपनी स्वयं की हैसियत और गरिमा की सुरक्षा करने के लिए, भ्रष्ट मानवजाति बार बार अपनी भावनाओं को व्यक्त करेगी और अपने अहंकारी स्वभाव को प्रकट करेगी। पाप के अस्तित्व का समर्थन करने के लिए मनुष्य क्रोध में आगबबूला होगा और अपनी भावनाओं को व्यक्त करेगा, और ये कार्य वे तरीके हैं जिसके तहत मनुष्य अपने असंतोष प्रकट करता है। ये कार्य अशुद्धता से लबालब भरे हुए हैं; वे छल कपट और साजिशों से लबालब भरे हुए हैं; वे मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से लबालब भरे हुए हैं; उससे कहीं बढ़कर, वे मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हुए हैं। जब न्याय दुष्टता से मुकाबला करता है, तो मनुष्य न्याय के अस्तित्व का समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला नहीं होता है; उसके विपरीत, जब न्याय की शक्तियों को धमकाया, सताया और उन पर आक्रमण किया जाता है, तब मनुष्य का स्वभाव एक प्रकार से नज़रअंदाज़ करने, टालने या मुंह फेरने का होता है। फिर भी, दुष्ट की शक्तियों से मुकाबला करते समय, मनुष्य की मनोवृत्ति एक प्रकार से भोजन का प्रबन्ध करने, और नमस्कार करने, और रगड़ कर साफ करने की होती है। इसलिए, मनुष्य का बक बक करना दुष्ट की शक्तियों के लिए बच निकलने का मार्ग है, और शारीरिक मनष्य के अनियंत्रण का एक प्रदर्शन है और रोका न जा सकनेवाले बुरा आचरण है। फिर भी, जब परमेश्वर अपने क्रोध को भेजता है, तब सारी बुरी शक्तियों को रोका जाएगा; मनुष्य को हानि पहुंचाने वाले सारे पापों को रोका जाएगा; वे सभी बैरी शक्तियां जो परमेश्वर के कार्य में बाधा डालती हैं उन्हें प्रकट, अलग और शापित किया जाएगा; शैतान के सभी सहअपराधियों को जो परमेश्वर का विरोध करते हैं उन्हें दण्डित किया जाएगा, और जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। उनके स्थान में, परमेश्वर का कार्य रुकावटों से मुक्त होकर आगे बढ़ेगा; परमेश्वर की प्रबंधकीय योजना निर्धारित समय के अनुसार लगातार कदम दर कदम विकसित होगी; परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान की परेशानी और धूर्तता से मुक्त होंगे; ऐसे लोग जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वे खामोश और शांतिप्रिय माहौल के बीच परमेश्वर की अगुवाई और आपूर्ति का आनन्द लेंगे। परमेश्वर का क्रोध एक सुरक्षा कवच है जो दुष्ट की सारी शक्तियों को बहुगुणित होने और अनियंत्रित होकर बढ़ने से रोकता है, और यह एक ऐसा सुरक्षा कवच भी है जो समस्त धर्मी और सकारात्मक चीज़ों के अस्तित्व और फैलाव को सुरक्षा प्रदान करता है और दमन और विनाश से सदा उनकी हिफाज़त करता है।
क्या आप सदोम के विनाश में परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्व को देख सकते हैं? क्या उसके क्रोध में कोई चीज़ मिली हुई है? क्या परमेश्वर का क्रोध पवित्र है? मनुष्य के शब्दों में, क्या परमेश्वर का क्रोध बिना किसी मिलावट के है? क्या उसके क्रोध के पीछे कोई छल है? क्या कोई षडयंत्र है? क्या अकथनीय रहस्य हैं? मैं आपको कठोरता और गम्भीरता से कह सकता हूँ; परमेश्वर के क्रोध का कोई अंश ऐसा नहीं है जो किसी को सन्देह की ओर ले जा सकता है। उसका क्रोध पवित्र एवं अमिश्रित है और वह उसमें किसी अन्य इरादों या लक्ष्यों को आश्रय नहीं देता है। उसके क्रोध का कारण पवित्र, निर्दोष और आलोचना से परे है। यह उसकी पवित्र हस्ती का एक स्वाभाविक प्रकाशन और प्रदर्शन है; यह कुछ ऐसा है जिसे सृष्टि में कोई भी धारण नहीं करता है। यह परमेश्वर के अद्वितीय धर्मी स्वभाव का एक हिस्सा है, साथ ही यह सृष्टिकर्ता और उसकी सृष्टि की अपनी अपनी हस्तियों के बीच एक असाधारण अन्तर भी है।
इसके बावजूद कि कोई दूसरों के देखते हुए क्रोध करता है या उनके पीठ के पीछे, क्योंकि प्रत्येक के पास अलग अलग इरादे और उद्देश्य होते हैं। कदाचित् वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण कर रहे हैं, या शायद वे अपने हितों का समर्थन कर रहे हैं, अपनी छवि को दुरुस्त कर रहे हैं या अपने चेहरे का ख्याल रख रहे हैं। कुछ लोग अपने क्रोध में नियन्त्रण रखने का अभ्यास कर रहे हैं, जबकि अन्य लोग बहुत उतावले हैं और थोड़े से नियन्त्रण के बिना जब भी वे चाहते हैं क्रोध से आगबबूला हो जाते हैं। संक्षेप में, मनुष्य का क्रोध उसके भ्रष्ट स्वभाव में से ही निकलता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इसका उद्देश्य क्या है, यह शारीर और स्वभाव से है; इसका न्याय और अन्याय से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि मनुष्य के स्वभाव और हस्ती में ऐसा कुछ नहीं है जो सत्य के अनुरूप हो। इसलिए, भ्रष्ट मानवता के मिजाज़ और परमेश्वर के क्रोध का एक सांस में जिक्र नहीं किया जाना चाहिए। बिना किसी अपवाद के, शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए गए एक मनुष्य का स्वभाव भ्रष्टता के बचाव से ही शुरू होता है, और यह भ्रष्टता पर आधारित होता है; इस प्रकार, मनुष्य के क्रोध का जिक्र परमेश्वर के प्रचण्ड क्रोध के समान एक ही साँस में नहीं किया जा सकता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे सैद्धान्तिक रूप से कितने उचित दिखाई देते हैं। जब परमेश्वर अपना क्रोध प्रकट करता है, दुष्ट की शक्तियों को रोका जाता है, बुरी चीज़ों को नष्ट किया जाता है, जबकि धर्मी और सकारात्मक चीज़ें परमेश्वर की देखरेख एवं सुरक्षा का आनन्द लेती हैं, और उन्हें निरन्तर बढ़ने की अनुमति दी जाती है। परमेश्वर अपने क्रोध को प्रकट करता है क्योंकि अधर्मी, नकारात्मक और बुरी चीज़ें सामान्य गतिविधि और धर्मी एवं सकारात्मक चीज़ों के विकास को बाधित, परेशान या नष्ट करती हैँ। परमेश्वर के क्रोध का लक्ष्य उसकी स्वयं की हस्ती और पहचान के बचाव के लिए नहीं है, किन्तु धर्मी, सकारात्मक, सुन्दर और अच्छी चीज़ों के अस्तित्व के बचाव के लिए, और मानवता के सामान्य रूप से जीवित रहने के नियमों और विधियों के बचाव के लिए है। यह परमेश्वर के क्रोध का मूल कारण है। परमेश्वर का कोप बिलकुल उचित, स्वाभाविक और उसके स्वभाव का असली प्रकाशन है। उसके क्रोध के पीछे कोई इरादे नहीं हैं, न ही धूर्तता या षडयंत्र हैं; या उससे भी बढ़कर, उसके कोप में कोई इच्छा, चतुराई, द्वेष, हिंसा, बुराई या कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिन्हें सारी भ्रष्ट मानवता में पाया जाता है। परमेश्वर द्वारा अपने क्रोध को प्रकट करने से पहले, उसने बिलकुल स्पष्ट रीति से और पूरी तरह से हर एक मामले के आवश्यक तत्व को पहले से ही जान लिया था, और उसने पहले से ही सटीक एवं स्पष्ट परिभाषाओं और परिणामों का सूत्र में वर्णन कर दिया था। इस प्रकार, हर मामले में जिसे वह करता है परमेश्वर का उद्देश्य कांच के समान स्वच्छ है, जैसी उसकी मनोवृत्ति है। वह गड़बड़ दिमागवाला नहीं है; वह अन्धा नहीं है; वह आवेगशील नहीं है; वह लापरवाह नहीं है; उससे बढ़कर, वह सिद्धान्तविहीन नहीं है। यह परमेश्वर के क्रोध का व्यावहारिक पहलु है। यह परमेश्वर के क्रोध का व्यावहारिक पहलु है, और यह परमेश्वर के क्रोध के इस व्यावहारिक पहलु के कारण ही है कि मानवता ने अपना सामान्य अस्तित्व हासिल किया है। परमेश्वर के क्रोध के बिना, मानवता जीवन जीने की असामान्य दशाओं में नीचे चली जाती; सभी चीज़ें जो धर्मी, सुन्दर और अच्छी हैं उन्हें नष्ट कर दिया जाता और वे अस्तित्व नहीं रहतीं। परमेश्वर के क्रोध के बिना, वे नियम और विधि जो सृष्टि को संचालित करती हैं उन्हें तोड़ दिया जाता या उन्हें पूरी तरह से पलट दिया जाता। मनुष्य की उत्पत्ति के समय से, परमेश्वर ने मानवता के सामान्य अस्तित्व को बचाने और कायम रखने के लिए अपने धर्मी स्वभाव का निरन्तर इस्तेमाल किया है। क्योंकि उसके धर्मी स्वभाव में क्रोध और प्रताप का समावेश है, सभी बुरे लोग, चीज़ें, पदार्थ और समस्त चीज़ें जो मानवता के सामान्य अस्तित्व को परेशान करती हैं और क्षति पहुंचती हैं उन्हें उसके क्रोध के कारण दण्डित, नियन्त्रित और नष्ट कर दिया जाता है। पिछली अनेक शताब्दियों से, परमेश्वर ने सब प्रकार के अशुद्ध आत्माओं और बुरे आत्माओं को मार गिराने और नष्ट करने के लिए अपने धर्मी स्वभाव का लगातार इस्तेमाल किया है जो परमेश्वर का विरोध करते हैं और मानवता का प्रबंधन करने के उसके कार्य में शैतान के सहअपराधियों और दलालों के समान कार्य करते हैं। इस प्रकार, मुनष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर का कार्य उसकी योजना के अनुसार सदैव बढ़ता गया है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर के क्रोध की उपस्थिति के कारण, मनुष्यों के बीच के सर्वाधिक नेक कारण को कभी भी नष्ट नहीं किया गया है।
अब जबकि आपके पास परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्व की समझ है, तो आपके पास निश्चित रूप से और भी बेहतर समझ होनी चाहिए कि किस प्रकार शैतान की बुराई को पहचानते हैं!
यद्यपि शैतान दयालु, धर्मी और गुणवान प्रतीत होता है, फिर भी वह निर्दयी और सत्व में बुरा है।
शैतान जन सामान्य को धोखा देने के जरिए प्रसिद्धि प्राप्त करता है। वह अक्सर स्वयं को एक सेना प्रमुख और धार्मिकता के आदर्श पुरुष के रूप में स्थापित करता है। धार्मिकता के बचाव के झण्डे के तले, वह मनुष्य को हानि पहुंचाता है, उनके प्राणों को निगल जाता है, और मनुष्य को स्तब्ध करने, धोखा देने और भड़काने के लिए हर प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। उसका लक्ष्य है कि मनुष्य उसके बुरे आचरण को स्वीकार करे और उसका अनुसरण करे, और मनुष्य परमेश्वर के अधिकार और सर्वोच्च सत्ता का विरोध करने में उसके साथ जुड़ जाए। फिर भी, जब कोई उसकी चालों, षडयन्त्रों और बुरी युक्तियों के प्रति बुद्धिमान हो जाता है और नहीं चाहता कि उसके द्वारा उसे लगातार कुचला जाए और मूर्ख बनाया जाए या निरन्तर उसकी गुलामी करे, या उसके साथ दण्डित एवं नाश हो जाए, तो शैतान अपने असली दुष्ट, दुराचारी, भद्दे और वहशी चेहरे को प्रकट करने के लिए अपने पहले के संत के समान रूप को बदल देता है और अपने झूठे नकाब को फाड़कर फेंक देता है। उसे उन सभों का विनाश करने में कहीं ज़्यादा खुशी मिलेगी जो उसका अनुसरण करने से इंकार करते हैं और उनको जो उसकी बुरी शक्तियों का विरोध करते हैं। इस बिन्दु पर शैतान आगे से एक विश्वासयोग्य और सभ्य व्यक्ति का रूप धारण नहीं कर सकता है; उसके बजाए, उसके बुरे और असली शैतानी लक्षण प्रकट हो जाते गए हैं जो भेड़ की खाल के नीचे हैं। जब एक बार शैतान की युक्तियों को प्रकाश में लाया जाता है, जब एक बार उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाता है, तो वह क्रोध से आगबबूला हो जाएगा और अपने वहशीपन का खुलासा करेगा; लोगों को नुकसान पहुंचाने और निगल जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र हो जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह मनुष्य के जागृत हो जाने से क्रोधित हो गया है; स्वतन्त्रता और प्रकाश की लालसा और अपनी कैद को तोड़कर आज़ाद होने की उनकी आकांक्षा के कारण उसने मनुष्य के प्रति बदले की एक प्रबल भावना को विकसित किया है। उसके क्रोध का अभिप्राय उसकी बुराई का समर्थन करना है, और साथ ही यह उसके जंगली स्वभाव का एक असली प्रकाशन भी है।
हर एक मामले में, शैतान का आचरण उसके बुरे स्वभाव का खुलासा करता है। उन सभी बुरे कार्यों से जिन्हें शैतान ने मनुष्यों पर क्रियान्वित किया है – उसके आरम्भ के प्रयासों से लेकर उसका अनुसरण करने के लिए मनुष्यों को बहकाने तक, और उसके द्वारा मनुष्य के शोषण तक, जिसके अंतर्गत वह मनुष्य को अपने बुरे कार्यों में खींचता है, और उसके असली लक्षणों का खुलासा कर दिए जाने और मनुष्य द्वारा उसे पहचानने और उसे छोड़ देने के पश्चात् मनुष्य के प्रति शैतान की बदले की भावना तक – कोई भी शैतान की बुरी हस्ती का खुलासा करने से नहीं चूकता है; कोई भी उस तथ्य को प्रमाणित करने से नहीं चूकता है कि शैतान का सकारात्मक चीज़ों से कोई नाता नहीं है; कोई भी यह प्रमाणित करने से नहीं चूकता है कि शैतान ही समस्त बुरी चीज़ों का स्रोत है। उसका हर एक कार्य उसकी बुराई का बचाव करता है, उसके बुरे कार्यों की निरन्तरता को बनाए रखता है, धर्मी और सकारात्मक चीज़ों के विरुद्ध जाता है, और मानवता के सामान्य अस्तित्व के नियमों और विधियों को बर्बाद कर देता है। वे परमेश्वर के विरोधी हैं, और वे ऐसे हैं जिन्हें परमेश्वर का क्रोध नष्ट कर देगा। यद्यपि शैतान के पास उसका अपना क्रोध है, फिर भी उसका क्रोध उसके बुरे स्वभाव को प्रकट करने का एक माध्यम है। शैतान क्यों भड़का हुआ और क्रोधित है उसका कारण यह है: उसकी अकथनीय युक्तियों का खुलासा कर दिया गया है; उसके षडयन्त्र आसानी से दूर नहीं होते हैं; परमेश्वर का स्थान लेने और परमेश्वर के समान कार्य करने की उसकी वहशी महत्वाकांक्षा और लालसा पर प्रहार किया गया है और उसे रोका गया है; समूची मानवता को नियन्त्रित करने का उसका उद्देश्य निष्फल हो गया है और उसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता है। यह परमेश्वर का बार बार उत्तेजित होनेवाला उसका क्रोध है जिसने शैतान के षडयन्त्रों को सफल होने से रोक दिया है और शैतान की दुष्टता के फैलाव और हिंसात्मक आचरण का पहले से अंत कर दिया है; इसलिए, शैतान परमेश्वर के क्रोध से नफरत करता है और डरता है। परमेश्वर के क्रोध का प्रत्येक इस्तेमाल न केवल शैतान के असली बुरे रूप को बेनकाब करता है; बल्कि वह शैतान की बुरी इच्छाओं को ज्योति में प्रकट भी करता है। उसी समय, मानवता के विरुद्ध शैतान के क्रोध की वज़हों का पूरी तरह से खुलासा किया गया है। शैतान के क्रोध का भड़काना उसके बुरे स्वभाव का असली प्रकाशन है, और उसकी युक्तियों का खुलासा है। हाँ वास्तव में, हर बार जब शैतान को क्रोधित होता है, तो यह बुरी चीज़ों के विनाश की घोषणा करता है, यह सकारात्मक चीज़ों की सुरक्षा और उनकी निरन्तरता की घोषणा करता है, और यह परमेश्वर के क्रोध के स्वभाव की घोषणा करता है – एक ऐसा स्वभाव जिसे ठेस नहीं पहुंचाया जा सकता है।
परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को जानने के लिए एक मनुष्य को अनुभव और कल्पना पर भरोसा नहीं करना चाहिए
जब आप स्वयं को परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का सामना करते हुए पाते हैं, तो क्या आप कहेंगे कि परमेश्वर के वचन में मिलावट है? क्या आप कहेंगे कि परमेश्वर के क्रोध के पीछे एक कहानी है, और यह कि उसके क्रोध में मिलावट है? क्या आप परमेश्वर पर कलंक लगाएंगे, यह कहते हुए कि उसका स्वभाव आवश्यक रूप से पूर्णत: धर्मी नहीं है? परमेश्वर के प्रत्येक कार्य के साथ व्यवहार करते समय, आपको पहले निश्चित होना होगा कि परमेश्वर का धर्मी स्वभाव अन्य तत्वों से मुक्त है; कि यह पवित्र और त्रुटिहीन है; इन कार्यों में परमेश्वर द्वारा मनवता को मारकर नीचे गिराना, दण्ड देना और नष्ट करना शामिल है। बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर के हर एक कार्य को उसके अंतर्निहित स्वभाव और उसकी योजना के अनुसार सख्ती से बनाया गया है - इस में मानवता का ज्ञान, परम्परा और दर्शनशास्त्र शामिल नहीं है - परमेश्वर का हर एक कार्य उसके स्वभाव और हस्ती का एक प्रकटीकरण है, और किसी भी ऐसी चीज़ से असम्बद्ध है जो भ्रष्ट मानवता से सम्बन्धित है। मनुष्य की अवधारणाओं में, मानवता के प्रति केवल परमेश्वर का प्रेम, करुणा और सहनशीलता ही दोषरहित, अमिश्रित और पवित्र है। फिर भी, कोई नहीं जानता है कि परमेश्वर का कोप और उसका क्रोध इसी तरह अमिश्रित हैं; इसके अतिरिक्त, किसी के पास भी वैचारिक प्रश्न नहीं हैं जैसे परमेश्वर किसी गुनाह को क्यों नहीं सहता है या उसका कोप इतना भयंकर क्यों है? इसके विपरीत, कुछ लोग परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मानवता का मिजाज़ जान कर ग़लती करते हैं; वे परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मानवता का कोप समझते हैं; यहाँ तक कि वे भूलवश अनुमान लगते हैं कि परमेश्वर का कोप मानवता के भ्रष्ट स्वभाव के स्वाभाविक प्रकाशन के समान ही है। वे भूलवश विश्वास करते हैं कि परमेश्वर के क्रोध का जारी होना भ्रष्ट मानवता के क्रोध के समान ही है; जो नाराज़गी से उत्पन्न होता है; वे यहाँ तक विश्वास करते हैं कि परमेश्वर के क्रोध का जारी होना उसके मिजाज़ का एक प्रदर्शन है। इस सहभागिता के पश्चात्, मैं आशा करता हूँ कि यहाँ उपस्थित लोगों में से हर एक के पास आगे से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को लेकर किसी भी प्रकार की ग़लत अवधारणा, कल्पना या अनुमान नहीं रहेगा, और मैं आशा करता हूँ कि मेरे वचनों को सुनने के पश्चात् आपके हृदय में परमेश्वर के धर्मी स्वभाव के क्रोध की सही पहचान हो सकती है, कि आप परमेश्वर के क्रोध के विषय में पिछले समय की किसी भी ग़लत समझ को अलग कर सकते हैं, कि आपका अपने ग़लत विश्वास और परमेश्वर के क्रोध के आवश्यक तत्वों के प्रति दृष्टिकोण को बदल सकते हैं। इससे बढ़कर, मैं आशा करता हूँ कि आप अपने हृदयों में परमेश्वर के स्वभाव की एक सटीक परिभाषा पा सकते हैं, कि आपके पास आगे से परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को लेकर कोई सन्देह नहीं होगा, कि आप परमेश्वर के सच्चे स्वभाव के ऊपर कोई मानवीय तर्क या अनुमान नहीं थोपेंगे। परमेश्वर का धर्मी स्वभाव परमेश्वर की स्वयं की सच्ची हस्ती है। यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे मनुष्य के द्वारा कुशलता से आकार दिया गया है या लिखा गया है। उसका धर्मी स्वभाव उसका अपना धर्मी स्वभाव है और इसका सृष्टि की किसी भी चीज़ के साथ कोई सम्बन्ध या नाता नहीं है। परमेश्वर स्वयं ही स्वयं परमेश्वर है। वह कभी भी सृष्टि का एक भाग नहीं बन सकता है, और भले ही वह सृजे गए प्राणियों के बीच एक सदस्य बन जाए, फिर भी उसका अंतर्निहित स्वभाव और हस्ती नहीं बदलेगी। इसलिए, परमेश्वर को जानना किसी पदार्थ को जानना नहीं है; यह किसी चीज़ की चीर-फाड़ करना नहीं है, न ही यह किसी व्यक्ति को समझना है। यदि आप किसी पदार्थ को जानने हेतु अपनी धारणा या पद्धति का इस्तेमाल करते हैं या परमेश्वर को जानने के लिए किसी व्यक्ति को समझते हैं, तो आप परमेश्वर के ज्ञान को हासिल करने में कभी भी सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर को जानना अनुभव या कल्पना पर भरोसा करना नहीं है, और इसलिए आपको अपने अनुभव या कल्पना को परमेश्वर पर नहीं थोपना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आपका अनुभव और कल्पना कितने समृद्ध हो सकते हैं, क्योंकि वे अभी भी सीमित हैं; इससे अधिक क्या है, आपकी कल्पना तथ्यों से मेल नहीं खाती है, और सच्चाई से तो बिलकुल भी मेल नहीं खाती है, और यह परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और उसकी हस्ती से असंगत है। यदि आप परमेश्वर की हस्ती को समझने के लिए अपनी कल्पना पर भरोसा करते हैं तो आप कभी भी सफल नहीं होंगे। एकमात्र रास्ता इस प्रकार है: वह सब ग्रहण कीजिए जो परमेश्वर से आता है, फिर धीरे-धीरे उसका अनुभव कीजिए और समझिए। एक ऐसा दिन होगा जब परमेश्वर आपके सहयोग के कारण और सत्य के लिए आपकी भूख और प्यास के कारण आपको ज्योतिर्मय करेगा ताकि आप सचमुच में उसे समझें और जानें। और इसके साथ, आइए हम अपने वार्तालाप के इस भाग को समाप्त करें।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य के बारे में बाइबिल की भविष्यवाणियाँ

     संदर्भ के लिए बाइबिल के पद:      "पिता किसी का न्याय नहीं करता, परन्तु न्याय करने का सब काम पुत्र को सौंप दिया है" (यूहन...