4. अंतिम दिनों में अपने न्याय के कार्य को करने के लिए परमेश्वर मनुष्य का उपयोग क्यों नहीं करता, इसके बजाय उसे देह-धारण कर, स्वयं इसे क्यों करना पड़ता है?(7)
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
क्योंकि वे सभी जो देह में जीवन बिताते हैं, उन्हें अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए अनुसरण हेतु लक्ष्यों की आवश्यकता होती है, और परमेश्वर को जानने के लिए परमेश्वर के वास्तविक कार्यों एवं वास्तविक चेहरे को को देखने की आवश्यकता होती है। दोनों को सिर्फ परमेश्वर के देहधारी शरीर के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है, और दोनों को सिर्फ साधारण एवं वास्तविक देह के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इसी लिए देहधारण ज़रूरी है, और इसी लिए समस्त भ्रष्ट मानवजाति को इसकी आवश्यकता होती है। जबकि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे परमेश्वर को जानें, तो अस्पष्ट एवं अलौकिक ईश्वरों की आकृतियों को उनके हृदयों से दूर हटाना जाना चाहिए, और जबकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करें, तो उन्हें पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना होगा। यदि मनुष्य केवल लोगों के हृदयों से अस्पष्ट ईश्वरों की आकृतियों को हटाने के लिए कार्य करता है, तो वह उपयुक्त प्रभाव हासिल करने में असफल हो जाएगा। लोगों के हृदयों से अस्पष्ट ईश्वरों की आकृतियों को केवल शब्दों से उजागर, एवं दूर नहीं किया जा सकता है, या पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता है। ऐसा करके, अंततः गहराई से जड़ जमाई हुई चीज़ों को लोगों से हटाना अभी भी संभव नहीं होगा। केवल व्यावहारिक परमेश्वर और परमेश्वर का सच्चा स्वरूप ही इन अस्पष्ट एवं अलौकिक चीज़ों का स्थान ले सकता है ताकि लोगों को धीरे धीरे उन्हें जानने की अनुमति दी जाए, और केवल इसी रीति से उस तयशुदा प्रभाव को हासिल किया जा सकता है। मनुष्य पहचान गया है कि वह परमेश्वर जिसे वह पिछले समयों में खोजता था वह अस्पष्ट एवं अलौकिक है। जो इस प्रभाव को हासिल कर सकता है वह आत्मा की प्रत्यक्ष अगुवाई नहीं है, और किसी फलाने व्यक्ति की शिक्षाएं तो बिलकुल भी नहीं हैं, किन्तु देहधारी परमेश्वर की शिक्षाएं हैं। जब देहधारी परमेश्वर आधिकारिक रूप से अपना कार्य करता है तो मनुष्य की धारणाओं का भेद खुल जाता है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर की साधारणता एवं वास्तविकता मनुष्य की कल्पना में अस्पष्ट एवं अलौकिक परमेश्वर के विपरीत है। मनुष्य की मूल धारणाओं को केवल देहधारी परमेश्वर से उनके अन्तर के माध्यम से ही प्रगट किया जा सकता है। देहधारी परमेश्वर से तुलना किए बगैर, मनुष्य की धारणाओं को प्रगट नहीं किया जा सकता था; दूसरे शब्दों में, वास्तविकता के अन्तर के बगैर अस्पष्ट चीज़ों को प्रगट नहीं किया जा सकता था। इस कार्य को करने के लिए कोई भी शब्दों का प्रयोग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी शब्दों का उपयोग करके इस कार्य को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना खुद का कार्य कर सकता है, और कोई अन्य उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य की भाषा कितनी समृद्ध है, वह परमेश्वर की वास्तविकता एवं साधारणता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। मनुष्य केवल और अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है, और केवल उसे और अधिक साफ साफ देख सकता है, यदि परमेश्वर व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य के मध्य कार्य करे और पूरी तरह से अपने स्वरूप एवं अपने अस्तित्व को प्रगट करे। यह प्रभाव किसी भी शारीरिक मनुष्य के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है। ... फिर भी, अनुग्रह के युग में और राज्य के युग में परमेश्वर के देह का कार्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव एवं परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान को शामिल करता है, और यह उद्धार के कार्य का एक महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भाग है। इसलिए, भ्रष्ट मानवजाति को देहधारी परमेश्वर के उद्धार की और अधिक आवश्यकता है, और उसे देहधारी परमेश्वर के प्रत्यक्ष कार्य की और अधिक ज़रूरत है। मानवजाति को ज़रूरत है कि देहधारी परमेश्वर उसकी चरवाही करे, उसकी आपूर्ति करे, उसकी सिंचाई करे, उसका पोषण करे, उसका न्याय एवं उसे ताड़ना दे, और उसे देहधारी परमेश्वर से और अधिक अनुग्रह एवं और बड़े छुटकारे की आवश्यकता है। केवल देह में प्रगट परमेश्वर ही मनुष्य का दृढ़ विश्वासपात्र, मनुष्य का चरवाहा, मनुष्य का अति सहज सहायक बन सकता है, और पिछले समयों में एवं आज यह सब देहधारण की आवश्यकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से
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